रिटायर व्यक्ति किसकी प्रतीक्षा करता है!
संजय दुबे

दिन घड़ी की सुइयां अपने सेकंड खोकर मिनट बनाती, मिनट जुड़ कर घंटे और घंटे दिन, दिन,सप्ताह बनाते और सप्ताह ,महीने, आखिर में महीने मिलकर साल बना लेते।
रिटायरमेंट के पहले समय का जोड़ समझने की फुर्सत ही नहीं थी।एक फिल्म के समान शुरू होकर सरकारी जिंदगी खत्म हो गई। लायक थे या नहीं इससे सरकार को कोई मतलब नहीं। जन्म तिथि के बासठ जोड़ वेतन से पेंशन के झुंड में डाल देती है।जिस प्रकार जन्म मृत्यु का शाश्वत है वैसे ही सरकारी सेवा है।
रिटायरमेंट भी शाश्वत है। कुछ लोग संविदा सेवा का लुत्फ , योग्यता कम चापलूसी के बल पर ले लेते है लेकिन ये लोग बंधुआ मजदूर कहलाने लगते है। इनके भी दिन वापस आते है और फिर रिटायर्ड समूह में आकर पेंशनभोगी कहलाने लगते है। सरकारी सेवा में रहते तो पता रहता था कि No work No payment लेकिन पेंशन सरकारी सेवा के एवज में क्षतिपूर्ति ही तो है No work but pension ।
62साल पूरे होने के पहले तक सरकारी काम की अनिवार्यता या बहाना घर से बाहर जाने का बड़ा कारण होता है।रिटायर हुए अनिवार्यता या बहाना दोनों खत्म। परिवार का हर सदस्य जिस वातावरण में 32- 35साल गुजारे, एक दिन उसमें क्रांतिकारी बदलाव। अब घर में रहेंगे, पारिवारिक जिम्मेदारी पूरी करेंगे। परिवार को समय देंगे।
बाकी की दिनचर्या यथावत रहती है, खुद के लिए खुद समस्या बनने की प्रक्रिया रिटायरमेंट के बाद शुरू होती है। चौबीस घंटे में सोने के घंटे छोड़ बाकी समय केवल समय को काटने की जद्दोजहद। सुबह उठ कर कितने घंटे बाहर घूमेंगे,घर वापस आ कर कितनी देर चाय पियेंगे, कितनी देर अखबार पढ़ेंगे, कितनी देर गुसलखाने में बिताएंगे, कितनी देर पूजा करेंगे, कितनी देर खाना खाएंगे, कितनी देर टीवी देखेंगे, किनी देर मोबाइल में सोशल रहेंगे,कितनी देर बाजार जाएंगे, इन्हीं विचारों में समय को विनियोग करने का तिकड़म दिमाग में चलता है। बड़े होते बच्चे अपनी नई दुनियां में व्यस्त रहते है।
दिन भर में दस मिनट दे दिए बहुत बड़ी बात है, खुद सरकारी सेवा में थे तब कितना वक्त दिए, ये समझ में आता है। अपनी वर्तमान उपेक्षा में उनके अतीत की अपेक्षा का तोल मोल समझ में आता है। सामाजिक होने का अलग ही व्याकरण है। घर किसी के जा नहीं सकते, घर किसी को बुला नहीं सकते।एकात बार जाने पर साधारण सम्मान मिल भी जाए लेकिन दूसरी बार ,तीसरी बार जाने में खुद के रिटायर होने की कीमत समझ में आ जाती है। बचता है जन्म, शादी, वैवाहिक वर्षगांठ और मृत्यु पर्व, और इनके अंतिम प्रयोजन के रूप में भोजन कार्यक्रम।
मेल मिलाप का आधुनिक केंद्र। खोज खोज कर मिल लीजिए। इनका भी अंत घंटों में हो जाता है।लौट कर जिंदगी फिर चौबीस घंटे को खर्च करने की जुगाड में लग जाती है। 62साल से लेकर मृत्यु तक समय का जोड़ चलता रहता है।

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