जस्टिस यशवंत वर्मा के लिए इधर कुआं उधर खाई
संजय दुबे

न्याय के सिद्धांत में एक बात स्पष्ट है कि न्यायालय किसी व्यक्ति को तब तक आरोपी मानता है जब तक प्रामाणिक तौर पर साक्ष्य (evidence) के आधार परअपराध सिद्ध नहीं हो जाता।पुलिस किसी अपराध कारित करने वाले व्यक्ति को गिरफ्तार कर भी लेती है तो भी व्यक्ति आरोपी होता है।कारावास में भी रखा जाता है तो उसे बंदी माना जाता है, कैदी नहीं।
जिस व्यक्ति पर अपराध सिद्ध हो जाता है वह अपराधी माना जाता है और अपराधी ही कैदी होता है,बंदी नहीं। जस्टिस?यशवंत वर्मा की स्थिति उच्चतम न्यायालय के अंदरूनी रिपोर्ट अनुसार आरोपी या बंदी के समान है, भले ही वे पुलिस के गिरफ्त में नहीं आए है। जस्टिस यशवंत वर्मा, देश में न्यायपालिका के एक ऐसे न्यायधीश के रूप में देखे जा रहे है जिनके घर से लाखों करोड़ों रुपए अधजले पाए गए है।
अपनी सफाई में यशवंत वर्मा ने अपनी अनुपस्थिति का हवाला दिया है।इस देश के साधारण नागरिक जानते है कि उच्च और उच्चतम न्यायालयों के घरों की सुरक्षा व्यवस्था बहुत तगड़ी होती है।इसके अलावा न्यायाधीशों की आचरण संहिता भी न्यायधीशों को सामाजिक होने के बजाय असामाजिक होने की नसीहत देती है। ऐसा माना जाता है कि न्यायधीशों का व्यवहार कुशल होना पक्षपात को बढ़ावा दे सकती है।
एक राज्य के मुख्य मंत्री पद पर चयनित व्यक्ति को ये वहम हो गया कि अब वह राज्य का मुखिया हो गया है अतः उच्च न्यायालय के न्यायधीश भी उसके अधिकार क्षेत्र में आ गए है। वाहनों का काफिला लेकर न्यायधीशों के आवासीय कालोनी में पहुंच गए। किसी भी न्यायधीश के घर का दरवाजा नहीं खुला। हताश होकर वापस आ गए।
जब एक राज्य का मुख्यमंत्री किसी न्यायधीश के यहां पद में होने के बावजूद प्रवेश नहीं पा सका तो कौन व्यक्ति लाखों करोड़ों रुपएयशवंत वर्मा के यहां रख भी दिया और जला भी दिए,गले से नीचे पानी पीकर भी उतरने वाली बात नहीं है। आज इस बात का सार्वजनीकरण हो गया है कि केंद्र सरकार जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव ला सकती है।
यह प्रस्ताव राज्यसभा में मॉनसून सत्र के दौरान लाया जा सकता है। माना जा रहा है कि यदि जस्टिस वर्मा स्वयं इस्तीफा नहीं देते हैं तो उनके खिलाफ संसद में महाभियोग प्रस्ताव लाना एक स्पष्ट विकल्प होगा। पूर्व मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने जस्टिस वर्मा को हटाने की सिफारिश की है। संजीव खन्ना ने एक आंतरिक जांच समिति की रिपोर्ट राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजी है। राज्यसभा में इस प्रस्ताव को लाने के लिए कम से कम 50 सांसदों के हस्ताक्षर की आवश्यकता होगी। सरकार इस मामले में विपक्ष का भी समर्थन चाह रही है क्योंकि पिछले चार बार में किसी न्यायधीश के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ सका है। इस बार मामला थोड़ा उलझा हुआ है। कांग्रेस में विधिवेत्ता विवेक तनखां ने व्यक्तिगत रूप से इस मामले में रुचि दिखाई है।
राजनैतिक रूप से भले ही ये मामला निहित स्वार्थों के भेंट चढ़ जाए बात अलग है क्योंकि भाजपा के प्रस्ताव का विरोध जन्मजात होता है। देश में न्यायपालिका और व्यवस्थापिका के बीच अंतर्कलह जारी है।राष्ट्रपति और राज्यपालों को समयावधि में विधेयक को कानून का रूप देने का निर्णय कर न्यायपालिका ने संविधान की समीक्षा के अधिकार पर निर्णय किया है या अतिक्रमण ,इस पर जुदा जुदा विचार है।
राष्ट्रपति ने 14प्रश्न भेज कर आग में घी डाल दिया है। उच्चतम न्यायालय को जवाब देने की बाध्यता नहीं है लेकिन देने या ना देने दोनों स्थिति में बात और मुद्दे जिंदा रहेंगे क्योंकि उप राष्ट्रपति ने यशवंत वर्मा के मुद्दे पर न्यायालय को घेरा तो है। यह भी ज्ञात रहे कि उपराष्ट्रपति स्वय मान्य अधिवक्ता रहे है।उनके पक्ष को सही या गलत अब व्यवस्थापिका ही करेगा। चाहे यशवंत वर्मा पर महाभियोग लगे या इसके पहले यशवंत वर्मा स्वयं इस्तीफा दे दे।जीत व्यवस्थापिका की होगी। बीते पांच मामलों में से चार प्रस्ताव राज्यसभा में पेश किए गए थे। 1993 में जस्टिस रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग की कोशिश हुई थी तब कपिल सिब्बल ने जज का बचाव किया था। ये प्रस्ताव आखिर में गिर गया था। अब जिन जजों के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाया गया न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी (सर्वोच्च न्यायालय) इस प्रस्ताव पर 1993 में लोकसभा में बहस हुई लेकिन आवश्यक बहुमत नहीं मिल सका।
न्यायमूर्ति सौमित्र सेन: (कलकत्ता उच्च न्यायालय) राज्यसभा ने 2011 में महाभियोग प्रस्ताव पारित किया, लेकिन उन्होंने लोकसभा में मतदान से पहले इस्तीफा दे दिया। न्यायमूर्ति एस.के. गांगले (मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय) - 2015 में राज्यसभा में एक महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था, लेकिन एक जांच समिति ने उन्हें दोषी नहीं पाया। नतीजतन प्रस्ताव को गिरा दिया गया। न्यायमूर्ति सी.वी. नागार्जुन रेड्डी (आंध्र प्रदेश और तेलंगाना उच्च न्यायालय) - 2017 में राज्यसभा में एक प्रस्ताव लाया गया था, लेकिन कुछ सांसदों द्वारा अपने हस्ताक्षर वापस लेने के कारण यह आगे नहीं बढ़ा। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा (सर्वोच्च न्यायालय) - 2018 में राज्यसभा में एक प्रस्ताव लाया गया था, लेकिन सभापति ने इसे खारिज कर दिया था। उच्चतम और उच्च न्यायालय के न्यायधीशों को हटाने की प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 124(4) और 124(5) में स्पष्ट है। इसके अनुसार, राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित प्रस्ताव के बाद ही किसी न्यायधीश को हटा सकते हैं। न्यायधीश को हटाने का प्रस्ताव संसद के प्रत्येक सदन में विशेष बहुमत से समर्थित होना चाहिए। विशेष बहुमत का मतलब है कि सदन के कुल सदस्यों का बहुमत और सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों का कम से कम दो-तिहाई बहुमत होना चाहिए। देखते है मानसून सत्र में कितने बादल गरजते है,या बरसते है

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