विदा माराडोना

लेखक - संजयदुबे

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आज जबकि कोरोना काल मे खिलाड़ी ही मैदान में दिख रहे है,दर्शको की गैलरी खाली पड़ी है लेकिन फुटबॉल के बहुत से स्टेडियम में आज वो दर्शक जाना चाह रहे होंगे जो माराडोना के प्रशसंक रहे है। कल फुटबॉल का नया जादूगर अपना बोरिया बिस्तर समेट कर दुनिया के रेफरी के द्वारा रेड कार्ड दिखाए जाने पर मैदान छोड़ गया।

90 मिनट के खेल का वो चपल खिलाड़ी जिसने अपने देश के सर पर 1986 में विजेता होने का ताज रखा था, वो पूरी दुनियां का चहेता खिलाड़ी था। अक्सर लोग किसी टूर्नामेंट का फाइनल याद रखते है लेकिन माराडोना के चलते 1986 का क्वार्टरफाइनल याद रखा गया।

माराडोना ने इंग्लैंड की आधी टीम को छका कर दुनियां के सबसे शानदार गोल रक्षक पीटर शिलट्न को भी छका कर गोल किया था तब सीधे मैदान में आंखों से ये नज़ारा देखने वाले दांतो तले उंगलियां दबा लिए थे।इस मैच के बाद हर मैच इतिहास का चश्मदीद गवाह बनते गया। फाइनल में जर्मनी भी माराडोना के सामने असहाय दिखे।

1986 की जीत के साथ ही माराडोना ने पेले के जादू को फीका कर अपना नाम रोशन किया था। कल वे जिस भगवान के भरोसे गोल कर गोल्डन हैंड गोल कर विवादास्पद हुए थे उसी भगवान के पास वे जा चुके है।हर खिलाड़ी को नए मैदान बहुत रास आते है उम्मीद है कि माराडोना को भी वो मैदान रास आएगा।उनको एक खिलाड़ी के रूप में याद रखना आसान है लेकिन एक इंसान के रूप में वे एक अस्वीकृत इंसान ही रहे है जो अपनी लोकप्रियता को पचा नही पाये। वे बेहतर खेल के दम पर बेहतर इंसान बन सकते थे लेकिन ड्रग ने उन्हें बदत्तर बनाकर रख दिया।

मैं उन्हें ऐसे इंसान के रूप में भूलना और एक फुर्तीले खिलाड़ी के रूप में याद रखना पसंद करूँगा अलविदा माराडोना।


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