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नारी बस नारी की दुश्मन न बने
लेखक : संजयदुबे
आज 8 मार्च है, एक ऐसे मार्च का दिन जिस दिन दुनियां की कुछ महिलाओं ने काम के घंटे औऱ सुविधा को लेकर एकजुट हुईं थी। ये एकजुटता धीरे धीरे एक असर आंदोलन में बदल कि उन्होंने पुरुषोंसे पीछे चलने के बजाय उनके साथ साथ औऱ कुछ मामलो में उनसे आगे भी चलने का जोश खुद में भरा,प्रतिस्पर्धा की, सफलता हासिल की, आज वे स्वतंत्रता को अपने ढंग से परिभाषित कर रही है। निश्चित रूप से महिलाओं का ये साहस उन्हें देश दुनियां में अपने जमात में अनुकरणीय बना ही रह है पुरुषों के लिए वे भी आदर्श बन रही है।
स्त्री, जिसे पुरुषों का वाम अंग कहते हुए वामिनी कहा जाता है समाज मे सबसे प्रतिष्ठित जननी के रूप में स्थापित महिला का ये गौरव पुरुषों के हिस्से में न आया है न ही शायद आ पायेगा। विज्ञान, अपने वैज्ञानिकों के दम पर कृतिम मातृत्व खड़ा कर सकता है लेकिन जो बात नैसर्गिक है उसे अविष्कृत करना बनावटी ही होता है।
अब मुख्य मुद्दा ये है कि पुरुषों से समानता का अधिकार रखने के लिए आतुर महिलाओं के सामाजिक ढांचे की बात,एक महिला जन्म ओर विवाह के बाद अनेकानेक रिश्तों में बंधती है। जन्म होने के साथ ही सबसे पहले बेटी बनती है नातिन-पोती बनती है भतीजी,भांजी के रिश्तों से बंधती है,बहन बनती है, इसके अलावा प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष संबंधों से नाता जोड़ती है। स्कूल कालेज जाती है तो सखा सहेली बनते है। विवाह के बंधन में बंधती है । पत्नी बनती है, बहु बनती है, भाभी, बुआ,चाची मामी बनती है ।एक नए सृजनकर्ता के रूप में जननी बनती है। संसार के सबसे उत्कृष्ट रिश्ते की आधार बनती है। ये रिश्ते नाते जहां एक स्त्री के सामाजिक संबंधों की बुनियाद बनती है लेकिन एक रिश्ता जो सर्वाधिक व्यथित करने वाला होता है वह है महिला का महिला के प्रति दोयम दर्जे का व्यवहार, एक माँ बेटी की मित्र होती है लेकिन बहु की सहेली नही होती है, बहु अपनी माँ के ताने फटकार सुन सकती है लेकिन सास की बाते तीर लगती है ननन्द भी अपनी माँ के साथ मिलकर दुरभि संधि में लग जाती है। 21 साल की लड़की अपने विवाहित जीवन का आनंद ले या खीर के स्वादिष्ट होने की परीक्षा में शामिल हो,अपने जीवनसाथी के साथ कही जीवन का लुत्फ उठाये या रिश्तेदारी निभाये,। इसी व्यवस्था के चलते महिला ही महिला की दुश्मन हो रही है। नई बहू नया घर का सिद्धांत प्रतिपादित हो रहा है।संयुक्त परिवार है तो व्यवसायियों के है जिनकी आर्थिक लाभ की बेबसी है लेकिन बाकी में एकल परिवार की बहुतायत हो रही है।कुल जमा रिश्ते नाते सिमट रहे है इसकी जिम्मेदारी महिलाओं पर पुरुषों से ज्यादा है वे शिक्षक है समाज मे जो संस्कार की ज्ञाता है उनको अपनी भूमिका से जूझना चाहिए
बस इतना ही कहना है आज
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