भारत के ऐसे रत्न जिनके सिद्धांतो का दुरूपयोग ही हुआ

लेखक : संजय दुबे

feature-top

 अंग्रेजो के जमाने से पहले अनेक समाज सुधारक रहे जिन्होंने समाज मे व्यक्ति के व्यक्ति के साथ के भेदभाव को खत्म करने के लिए कोशिश करते रहे है जब अंग्रेजो ने भी भेदभाव को बढ़ाने के 1921 में मद्रास प्रेसिडेंसी के चुनाव में जातिगत आधार पर आरक्षण की नीति अपनाई तो ये समाज सुधार का प्रयास नही था बल्कि बड़ी सोची समझी राजनीति का हिस्सा थी। दोगले अंग्रेज इस देश की वर्ण व्यवस्था में ये कभी समझ ही नही पाये की कर्म के आधार पर यहां वर्ण की व्यवस्था थी। ज्ञानी ब्राह्मण था,योद्धा क्षत्रिय था,कारोबारी वैश्य था और इनसे परे लोग शुद्र थे।थोड़ा सा पीछे चलते है। रामायण युग मे राम के राजा बनने पर मुख्य अतिथि केवट थे। कृष्ण, यादव थे लेकिन उनकी विद्वता को तत्समय के सारे वर्ण वाले प्रणाम करते थे। ये बात किसी दीगर धर्म वाले को न तो समझ मे आनी थी न वे समझना चाहते थे, शासक जो ठहरे। उन्हें तो यह अपनी विभाजन करो और शासन करो कि नीति को मजबूत करना था ।वे सफल भी हुए। भीमराव अंबेडकर सही मायने में कानूनविद थे वे विधिक रूप से समानता के पक्षधर थे। उन्होंने विधि की शिक्षा भी समानता के लिए ही अर्जित की। संविधान में आज मूलभूत अधिकार में समानता का अधिकार उन्ही के विधिक ज्ञान की ही भावना थी। वे देश के पहले विधि मंत्री बने तो उन्होंने 10 साल का विधिक समय इस देश से असमानता को हटाने के लिए पर्याप्त माना था।अगर वे राजनीति के उम्र के हिसाब से जीते तो शायद इस देश मे समानता उनके जीते जी आ जाती और नही भी आती तो कम से कम आरक्षित समाज मे क्रीमी लेयर को तो स्थापित कर एक ही परिवार के लोगो के बारम्बार आरक्षण की सुविधा के उपभोग से वंचित तो कर ही देते। उनके देहावसान के बाद आरक्षण ,राजनैतिक औऱ पारिवारिक लाभ का संसाधन बन गयी। देश मे राजनैतिक दलों ने इसका भरपूर लाभ उठाया और आगे भी उठाएंगे ऐसे ही इस समाज के लाभान्वित लोग बारम्बार आरक्षण का फायदा उठाते रहेंगे। क्या आज कोई भी राजनैतिक दल इस बात का साहस कर सकता है कि ठाकुर बहुल लोकसभा क्षेत्र में एक दलित को अपना प्रत्याशी बना सके। उनके लिए तो देश मे सीट तय कर दी गयी है अनुसूचित जनजाति के लिए। 84 अनुसूचित जाति के लिये 47 । पिछले 70 सालों में ये वर्ग न तो लखनऊ से लड़ कर जीत सका न ही मुम्बई पश्चिम से। छत्तीसगढ़ के विधानसभा में राजधानी के इतिहास उठाकर देख लीजिए एक भी अनुसूचित जाति या जनजाति का विधायक नही मिलेगा। देश मे हर लोकसभा/विधानसभा में जिस प्रकार स्थानीय चुनाव में वार्ड,सरपंच,अध्यक्ष महापौर के लिए आरक्षण व्यवस्था है उसे लोकसभा, / विधानसभा चुनाव में अपनाया जाना चाहिए।आखिरकार किसी राज्य की राजधानी से कोई अनुसूचित जाति या जनजाति का नेतृत्वकर्ता क्यो न हो। अनुसूचित जाति और जनजाति के उत्थान के सरोकारों को भी चाहिए कि वे खुद ही ऐसी व्यवस्था के लिए संघर्ष कर जिसमे आरक्षण किसी परिवार विशेष के लिए पुरखोंती न बन जाये। आपको अपनो के लिए भी समानता की लड़ाई बाबा साहब अंबेडकर के सिद्धांतों के लिए लड़ना ही होगा।


feature-top