रेल गाड़ी,रेल गाड़ी

लेखक: संजय दुबे

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 हम उस युग के सौभाग्यशाली यात्री है जिन्होंने कोयले से चलने वाली इंजिन के यात्री गाड़ी के यात्री होने का सुख और दुख भोगा है। इस कोयले से चलनेवाली ट्रैन में जब पानी को भाप में बदलने के लिए कोयला डाला जाता तो  धुंए के साथ साथ कोयले के टुकड़े भी उड़ते थे ।जो आंखों में भी पड़ जाते थे।खिड़की के पास बैठने का ये नुकसान था लेकिन गर्मी की छुट्टियों में इंदौर से रायपुर आने के लोभ के लिए आंखों में कोयला भी सही और कपड़े का कालापन भी सही। ये कोयला ट्रेन कई स्टेशन में कोयला औऱ पानी भरती, तब के बोगी में कांच  की खिड़की नही होती थी, न ही आड़ी लोहे के रॉड, यात्री कई बार दरवाजे के बजाय खिड़की से ही बोगी में घुस जाते थे। समय के साथ देश विकास की पटरी पर सरकते गया चलते गया, दौड़ते गया। पहले डीजल इंजिन आया फिर  इलेक्ट्रिक इंजिन आये, बोगी में पहले गैर अनुकूलित फर्स्ट क्लास होता था, बिना रिजर्वेशन के पहले आओ पहले पाओ का सिद्धांत लागू होता था, अब  रिजर्वेशन की सुविधा है। पहले  रेल्वे स्टेशन में खाने पीने की वे सारी वस्तु मिलती थी  जो खाना हो। सबसे ज्यादा मूंगफली मिलती थी।  बोगी  छिलके से भरा होता था।बीड़ी पीने का काम सार्वजनिक था। बाहर भी  धुंआ भीतर भी धुंआ। सोना हो तो बैठे बैठे या फिर  दो सीट के बीच दरी चादर बिछा कर महिलाएं बच्चे सो जाते थे। तब के जमाने मे आजकल जैसे चक्के वाले सुविधाजनक सूटकेस नही हुआ करते थे। लोहे की पेटियां हुआ करती थी। वजनदार क्योकि एक दो महीने का सामान हुआ करता था। उस दौर में सही मायने में कुली की जरूरत हुआ करती थी। मैं भी कहाँ आपको लेकर चला गया।
चलिए मुद्दे पर आते है।
 आज 16 अप्रैल है।आज से167 साल पहले इस देश मे यात्री गाड़ी की  शुरुआत इसी दिन हुई थी। बचपन मे एक कहानी पढ़ा करते थे जिसमें एक चित्र भी बना हुआ करता था। एक बच्चा चाय की केतली से निकलते हुए भाप के कारण केतली के ढक्कन को उछलते हुए देख कर सोचता है कि ये ताकत किसी भी को धकेल सकती है। यही विचार आगे चलकर भाप से चलनेवाली ट्रैन के लिए बना।  जिस बच्चे के मन मे ये विचार आया उसे सारी दुनियां------   -------- के नाम से जानती है। बहरहाल तब के जमाने मे रेल्वे लाइन बिछाने का काम ग्रेट इंडिया  पेनिनुसुला कम्पनी किया करती थी जिसका मुख्य कार्यालय बोरीबंदर(आज का शिवजी टर्मिनस) हुआ करता इस कम्पनी ने 34 किलोमीटर की रेल लाइन बिछाने का का पूरा किया  अंतिम छोर था थाने । 16 अप्रैल 1853 को  21 तोप की सलामी के बाद 400 मेहमान  यात्रियों को लेकर तीन भाप इंजिन  जिन्हें लंदन से लाया गया था उन्हें नाम दिया गया सिंधु,सुल्तान,औऱ साहिब। तो साहेब देश की पहली यात्री ट्रेन छुक छुक करते हुए चली।34 किलोमीटर का सफर 1घण्टे 35 मिनट में पूरी हुई। तब केवल 400 यात्री थे आज देश मे 8720 ट्रैन 2करोड़31 लाख यात्रियों को रोजाना गंतव्य तक पहुँचाती है। वो 34  किलोमीटर की दूरी अब 67415 किलोमीटर में बदल गई है।
 यात्री ट्रेन ने हमे देश के कोने कोने से जोड़ा है।मध्यम वर्ग के लिए तो ये सुविधा सही मायने में बहुत बड़ी सुविधा है।


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