कलम के लयनुमा पुरौधा

लेखक : संजय दुबे

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  देखा जाए तो आम भारतीय व्यक्ति जो 1932 के सालो से लेकर आने वाले सालो में जन्म लिया है उसके जीवन मे फिल्मो के गाने की महक है। अनपढ़ व्यक्ति भी किसी गाने को गुनगुनाने की हैसियत रखता है। सुर बैठे या न बैठे,वाद्य यंत्र बजे न बजे, आवाज सहगल, मुकेश,रफी,किशोर,अर्जित,के के या फिर लता, आशा, हेमलता, शारदा, अल्का सुनिधि,श्रेया य जैसी हो या न हो गीत गाते है। हमे रेडियो के उद्घोषक सहित टेलीविजन में गीत दिखाने -सुनानेवाले फिल्म का नाम, गायक गायिका, गीतकार,संगीतकार का नाम दिखाते है। हम अभिनय करने वालो को याद रखते है, गाने वालो को याद रखते है, कुछ हद तक संगीतकारों को भी याद रखते है लेकिन जो व्यक्ति एक गीत को जन्म देता है, वह गुमनाम ही रह जाता है।कहा जाता है कि गीतकार केवल आटा गुथनेवाला होता है।उसे रोटी का आकार संगीतकार,गायक गायिका औऱ अभिनय करनेवाले अभिनेता,अभिनेत्री सहित डायरेक्टर सहित कैमरामैन का होता है।यही वजह है कि हम गीतकार को याद नही रखते या बाकी लोगो की मेहनत इतनी प्रखर हो जाती है कि गीतकार के गुमनाम होने के अलावा कोई विकल्प शेष नही रह जाता है। मुझे लगता है कि गीतकार को भी नाम के अलावा प्रसिद्धि मिलना चाहिये।

 सालो से गाने सुनता आ रहा हूं शायद 1967 से गाने समझ मे आने लगे थे। लेकिन गानों का सिलसिला 1932 से शुरू हो चला है सो कोशिश कर रहा हूं कि कानो में घुलने वाले शब्दकारो से खुद को और आपको भी मिलाते चलूं। आपको याद दिलाते चलूँ कि हर रविवार को अपने लेख के माध्यम से देश के उन गीतकारों को जिनके गीतों ने कभी खुशी के बयार को फैलाया तो किसी के गीत ने रुलाया, किसी के गीत ने नाचने पर मजबूर किया तो किसी के गीत ने आपको गर्व से भर दिया।

 छोटी सी बात:- भारत की पहली बोलती फिल्म आलमआरा के पहले गीत- दे दे खुदा के नाम पर देदे गर ताकत है देने की के गीतकार का नाम किसी को पता नही है।


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