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जिंदगी से पीछे भी,जिंदगी के साथ भी, जिंदगी से आगे भी याने सिर्फ मिल्खा सिंह
लेखक - संजय दुबे
यदि जिंदगी के दौड़ के लिए दूरी निर्धारित किया जाता है तो माना जाता है कि तीन अंकों की सबसे छोटी संख्या 100 को ही लक्ष्य माना गया है लेकिन हर व्यक्ति के जीवन के दौड़ की अपनी दूरी होती है कोई स्वस्थ होकर लंबी दूरी तय करता है तो कोई शुरुआत में ही हार जाते है। मिल्खासिंह , अपने जीवन ट्रेक में 91 साल को ही लक्ष्य माने होंगे और ये भी तय किया होगा कि वे अपने जीवनसाथी के साथ ही दौड़ेंगे। कुछ दिन पहले उनकी जीवन साथी ने रुखसत किया था कल रात मिल्खा के लिए वो समय आया और वे भी जीवन दौड़ का फीता लांघ गए।
मिल्खा, भारत पाकिस्तान विभाजन के खूनी नर संहार के साथ साथ साम्प्रदायिक वैमनस्यता के जीते जागते चश्मदीद गवाह थे। उन्होंने अपना परिवार खोया था ,वे भागे थे दर्दनाक परिस्थितियों से, खूनी मंजर को अपने आंखों से देखने के बाद एक बाल मन मे क्या गुजरी होगी ये सिर्फ मिल्खा ही जानते रहे होंगे। जब उन्होंने पाकिस्तान से भारत के लिए भयावह दौर में अकेले ट्रेन पकड़ी थी तो वे अकेले थे जिंदगी से पीछे। भारत आये तो जिंदगी ने उन्हें बिछड़ी बहन से मिलाया। वे जिंदगी से मिले।जिंदगी का साथ देने के लिए वे काम भी किये जिसे समाज स्वीकार नही करता लेकिन उबरे भी। सेना में शामिल हुए और फिर जिंदगी के साथ साथ कदमताल करते करते दौड़ने लगे। वे ऐसा दौड़े कि जिंदगी उनके पीछे भागने लगी। दौड़ और भाग में फर्क यह है कि भागने में भय शामिल होता है, वही दौड़ उन्मुक्त होती है। भागने में लक्ष्य नहीं होता है वही दौड़ने में दूरी निर्धारित होती है, लक्ष्य तय होता है। मिल्खा जिंदगी या परिस्थिति से भागे नही बल्कि दौड़े। वे कामनवेल्थ खेलो में भारत के पहले विजेता थे याने प्रेरणा के पहले च्वयन प्रास, वे उद्धहरण बने देश के युवा वर्ग के लिए ,वे देश के लिए मिसाल बने कि लक्ष्य साधो और तब तक दौड़ो जब तक विजयी न हो जाओ।
मिल्खा की उपलब्धि देश का बच्चा बच्चा जानता है उसे यहाँ दोहराने की जरूरत नही है।1958 के रोम ओलंपिक में वे पुराने विश्वरिकार्ड को तोड़ने के बाद भी पदक से वंचित होने वाले पहले भारतीय थे जिसका मिसाल आज भी दिया जाता है कि हार में भी जीत है बशर्ते प्रयास में कमी न हो। देश ने पाकिस्तान में मिल्खा की जीत पर छुट्टी का जश्न मनाया था ।ये उपलब्धि अब तक सचिन तेंदुलकर जैसे खिलाड़ी के हिस्से में नहीं आया है।
वे उड़न सिक्ख कहलाते थे, कहलायेंगे भी क्योकि जिंदगी के आसमान में भी व्यक्ति को एक न एक दिन देह त्याग कर उड़ना तो पड़ता ही है। कल मिल्खा भी दौड़ने के बजाय उड़ लिए। दौड़ते दौड़ते वे उड़ते तो थे ही, उड़ लिए।
कृतज्ञ राष्ट्र के 140 करोड़ लोग आज आपको, आपके योगदान को, आपकी प्रेरणा को, आपके समर्पण को, आपके दृढ़ता को, आपके दौड़ को, आपके उड़ान को याद करेगा ही। भविष्य में जब भी परिस्थिति से भागने के बजाय साथ मे दौड़ने का माद्दा सामने आएगा तो आप मिसाल होंगे।
अब आपके जीवन दौड़ के ट्रेक में दौड़ खत्म होती है। आपको विजेता घोषित किया जाता है। जॉइये तिरंगे में लिपट कर, देश दुनिया आपको अश्रुपूरित विदाई देती है।
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