ठाकुर संजीव कुमार साहब

लेखक - संजय दुबे

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किसी भी फिल्म में केवल नायक ही सब कुछ नही होता है बल्कि चरित्र नायक भी मायने रखते है। केवल चेहरा ही सब कुछ नहीं होता है बल्कि भाव भंगिमा भी महत्व रखती है। केवल अभिभावकों के स्टार होने से बच्चे स्टार नही हो जाते है ,आपमे दम हो तो आप भी अपनी जगह बना सकते है ये बात सीखने के लिए यदि आपको कोई मिसाल या उदाहरण चाहिए तो है ना- शोले के ठाकुर साहब बनाम संजीव कुमार। वैसे जब संजीव कुमार ने फिल्मो में अपना संघर्ष करना शुरू किया था तब एक्टिंग हाउस के प्रोडक्ट्स नही निकल रहे थे लेकिन अभिनय क्षमता रखने वालों की पूछ परख थी। कलाकारों का जमाना था जिसमे अभिनय की गुंजाइश थी ऐसे में गुजरात के हरिहर ने मुंबई का रुख किया। हरिहर से हरिभाई और फिर अटपटे नाम से संजीव कुमार के सफर में खिलौना के एक पागल ने संजीदा अभिनय का ऐसा माइल स्टोन लगाया कि जब वे विधाता में मालिक अभिनय सम्राट दिलीप कुमार के नौकर अबू भाई बने तो उन्होंने खुद को नौकर होने के बजाय दिलीप कुमार को मालिक होने से इंकार करने का अभिनय नही किया था बल्कि चरित्र में जी गए थे। 

एक अभिनेता(कलाकार नही) कैसे मायने रखता है ये उम्र के पड़ाव के दौर पर युवक से लेकर बूढ़े तक के अभिनय यात्रा की संपूर्णता तय करती है।संजीव कुमार ने हर उम्र के अभिनेता को जिया वे उतने उम्र के थे तो नही लेकिन वे जीते थे। अगर आपने त्रिशूल फिल्म देखा हो वे सही मायने में अमिताभ बच्चन के बाप ही लगे थे। गुलज़ार के वे पसंदीदा चयन थे इसलिए वे आंधी में आये मौसम में आये। सत्यजीत रे जैसे महान निर्देशक ने जब शतरंज के खिलाड़ी बनाया तो उन्हें संजीव कुमार ही जंचे।

 मैंने संजीव कुमार की बहुत सी फिल्में देखी है ।नया दिन नई रात( 9 रस विधा की फिल्म),अंगूर(दोहरी भूमिका) आंधी(दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन) और शोले(मैं ये देखना चाहता था तुममें वही जोश भरा हुआ है या समय के दीमक ने तुम्हे चाट लिया है) के बदौलत संजीव, सा+जिन्दा है। संजीव कुमार जया भादुड़ी के प्रेमी बने,पति बने,पिता बने याने वर्सेटाइल।

कल संजीव कुमार जन्मे थे याने 9 जुलाई। कल फुर्सत के रात दिन ढूंढ नही पाया था।छत पर तारो को गिन नही पाया था, ओंधे नही पड़ा सो लिख नही पाया था।

क्षमाप्रार्थी ठाकुर संजीव कुमार साहब


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