रसीदी टिकट

लेखक: संजय दुबे

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 बचपन छोड़ किशोरावस्था में जब लाइब्रेरी में समाकहा पत्रो,कहानी की पुस्तकों के लिए इंतजार करने की बेबसी हुआ करती थी तब आल्मारियो में करीने से रखी किताबो के शीर्षक पढ़कर समय बिताना भी एक काम हुआ करता था। इन्ही किताबो में एक किताब का शीर्षक मन को लुभाता भी था और उत्सुकता के दायरे में ले जाकर खड़ा भी करता था। ये किताब थी रसीदी टिकट।वक़्त के साथ वक़्त गुजरते गया। साहित्यिक चुल ने किताबो की संसार मे धकेला तो इस क्षेत्र के नामवर लोगो के नाम भी पता चलने लगा। इन्ही नामो में उस लेखिका का भी था जिन्होंने रसीदी टिकट लिखा था। आज उनकी 102 वी जयंती में सारा संसार याद कर रहा है।

अमृता प्रीतम

अमृत सा अमरत्व लिया हुआ ये आदरणीय नाम हमेशा यादगार रहा क्योंकि जिस राज्य को कृषि क्रांति का जनक माना गया उसी पंजाब से एक साहसी महिला ने विभाजन के दौर में कलमकार बनी। जिस दौर में अमृता ने अपना वजूद बनाना शुरू किया था तब के जमाने मे लड़कियों का पढ़ना महज एक रस्म अदायगी हुआ करता था। शादी जैसी प्रथा लड़की के 13वे साल सामने आन खड़ी होती थी।इस दौर में अमृता ने शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ते गयी लिखती गयी।1947 में वे सिर्फ 28 साल की थी। विभाजन को आंखों देखा था उन्होंने। उनके लेखन में विभाजन की पीड़ा दिखते रही।" पिंजर" इसी त्रासदी का हक़ीक़तनामा रहा है। गुजरांवाला से पलायन की दास्तां पिंजर बया करती है लेखन से उनका प्रेम वक़्त के साथ बढ़ते गया। वे प्रतिष्ठित होते गयी। सैकड़ो उपन्यास,कहानियां,गद्य,संस्मरण उपन्यास उनके कलम से शब्द बन मुद्रित होते गयी। कलम में साहस नही होता है,लेखक के मस्तिष्क और हाथ उसे सशक्त बनाते है। ये अमृता प्रीतम ने प्रमाणित किया है। वे इस दुनियां में नही है लेकिन वे प्रेरणा है विपरीत परिस्थितियों में सशक्त होने की।

अमृता प्रीतम के बारे में एक बात कही जाती हर कि प्रेम अगर इंसान की शक्ल लेता तो उसका चेहरा अमृता प्रीतम जैसा होता। आपके लेखन को करोड़ो नमन।


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