अर्बन हीरो बनाम देवानंद
लेखक : संजयदुबे
फिल्म जगत आम भारतीयों के लिए एक ऐसा सपनो का संसार है जहां से हर व्यक्ति एक नायक नायिका की तरह से अपनी जिंदगी को रचाता बसाता है। पुरुषों में नायकत्व का असर बहुत होता है। वे अपने समय काल के नायकों का अनुशरण कर केश विन्यास रचते है, कपड़े पहनते है, भाव भंगिमाएं का अनुशरण करते है। इन्ही के माध्यम से अपने जीवन के नायिकाओं को प्रभावित करने का सफल असफल प्रयास भी नायकत्व का सशक्त पक्ष है। अवाक फिल्म राजा हरिश्चंद्र से लेकर सवाक फिल्म आलमआरा के बाद से 1947 तक के दौर में धार्मिक औऱ सामाजिक पृष्ठभूमि की फिल्मों में नायकत्व का दौर नही था। ईश्वर या सामाजिक परिवेश की भूमिकाओं में ही कलाकार जीते रहे लेकिन पहले नायक के रूप में अशोक कुमार, राजकपूर, दिलीपकुमार गुरुदत्त नही थे बल्कि देवानंद थे। वे रूमानी अभिनय के जादूगर थे जिनके चाहने वाले ही नही चाहने वाली भी थी। ब्लेक एन्ड व्हाइट से लेकर रंगीन फिल्मों के सफर में देवानंद हर प्रकार के अभिनय में जीते गए।"गाइड" उनकी बेमिसाल फिल्म के रूप में अंतरास्ट्रीय स्तर पर सराही गयी फिल्म थी। ये फिल्म दर्शनशास्त्र की फिल्म थी जिसमे आस्था के प्रश्न का बेमिसाल उत्तर था। उत्तरोत्तर देवानंद ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा औऱ इसमे भी वे बहुत अर्से तक स्वाद चखते रहे।
उनका पहला दौर नायकत्व का रहा साथ ही वे जब दूसरे दौर में अमीर गरीब फिल्म के साथ आये तो वे नायक ही रहे। उन पर उम्र हावी होते रही लेकिन वे सदाबहार ही रहे। उनके चेहरे पर झुर्रियां बढ़ते गयी लेकिन वे विचारो से जवान ही थे।उनके पहनावे में कभी भी गाँव की झलक नही दिखी। देश के हर नायको ने पायजामा कुर्ता पहना,धोती पहनी लेकिन देवानंद ने कभी भी गाँव की वेषभूषा नही अपनाया। वे शर्ट पेंट कोट वाले ही नायक रहे इसी कारण उनको शहरी नायक का ही दर्जा मिला। संभवतः देवानंद जानते थे कि भूख लाचारी में भी जीने वाले लोग कल्पनालोक में विचरते समय अपनी वास्तविकता को पर्दे पर देखना नही चाहते थे/है। मैं भी आम भारतीयो की तरह फिल्मों को आत्मसात करता आया हूं। मेरे पहले नायक भी देवानंद ही है। जिया हो जिया कुछ बोल दो अरे हो दिल का पर्दा खोल दो, गाने में उनसे पहले बार पर्दे पर मुलाकात हुई थी। ऊंचा कद, बड़ी बड़ी आंखे, मनमोहक मुस्कान के साथ बेहतरीन कदकाठी, के देवानंद ने बहुत ज्यादा प्रभावित किया था। वे सदाबहार थे,उनसे मरते दम तक जीने की जिजीविषा को सिखाया। वे मेहनत के रचनाधर्मी थे, अनवरत काम करने का जुनून उनमे था। असफलता ने उनको भी विचलित नही किया। इसी कारण उनके जीवन के अंतिम दौर में भी वे कुछ नया ही करना चाहते थे। मैं उनसे यही सीखता हूं। एक हज़ारो में उनका कहना है। श्रद्धा सुमन के साथ आपको याद कर रहा हूं।
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