मन को मंदिर इसीलिए कहते है

लेखक: संजय दुबे

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ईश्वर कैसा रहा होगा? ये प्रश्न मुझे हमेशा एक अंतहीन विचार यात्रा में लेकर सालो से लेकर चलाता आ रहा है। देखने की शक्ति हमे सबसे पहले मिलती है सो छिंदवाड़ा के दुर्गामंदिर में पहली बार दुर्गा को देखा था। वे आठ हाथ वाली थी। आते जाते उनको देखता तो लगता कि इनके आठ हाथ क्यो है? हमारे तो दो ही हाथ है। सात हाथो में अस्त्र शस्त्र सहित अन्य औऱ एक हाथ मे आशीर्वाद की भंगिमा , मन मे विचार आता कि ईश्वर को चार गुना सामर्थ्य रखना पड़ता होगा। दुर्गा मंदिर के थोड़ी दूरी पर राम मंदिर था। भव्य, चार गुम्बजों वाले इस मंदिर के मध्य में राम सीता और लक्ष्मण की मूर्तियां थी। सभी लोग इस मंदिर को राम मंदिर कहते थे। मैं विचार करता कि दुर्गा मंदिर में दुर्गा अकेली है तो ईश्वर है लेकिन राम सीता लक्ष्मण के साथ साथ मे होने के बावजूद ईश्वर केवल राम का क्यो है? क्या सीता औऱ लक्ष्मण ईश्वर क्यो नहीं है।झिझक हुआ करती थी मन मे सो ये प्रश्न अनुत्तरित ही रहे। उम्र के साथ मन्दिरो में अलावा जब पाठशाला में गया तो" ग" गणेश से प्रथमपूज्य ईश्वर से परिचय हुआ। कालांतर में ईश्वर के नाम के आधार शिव, विष्णु, कृष्ण,हनुमान,काली, मंदिरो में जाना हुआ।जिन ईश्वरो के मंदिर नही थे उन ईश्वरो के नाम से भी परिचय होते गए। हर ईश्वर के दिन भी ज्ञात होने लगे। इन सबके साथ लोगो के घरों में भी एक हिस्सा मंदिरो के रूप में दिखता। भक्ति दिखती,भक्त दिखते। त्यौहारों में ईश्वर के प्रति श्रद्धा को चरम में भी देखता।दिन विशेष में ईश्वर अन्य दिनों की तुलना में वरीयता प्राप्त करते। इतने के बावजूद मेरी ईश्वर के आकृति के लिए उलझन बढ़ते जा रही थी/है। ईश्वर निराकार है,ईश्वर हवा में है,कण कण में है, सर्वव्याप्त है।इन बातों ने मुझे हमेशा ही द्वंद में रखा। इन्ही काल मे ईश्वर के स्थापित विशेष नगरों जैसे प्रयागराज, बनारस, हरिद्वार,उज्जैन, मथुरा, द्वारका, तिरुपति,अयोध्या, सहित अन्य धार्मिक स्थलों में जाना हुआ। ये तो तय हुआ कि आस्था का चरम है। विश्वास की पराकाष्ठा है।कठिन परिस्थितियों में मनोवैज्ञानिक संबल है ईश्वर। जिससे डिगना असंभव है लेकिन मन एक प्रश्न अवश्य खड़ा करता कि ईश्वर का वास्तविक रूप क्या होगा। जनश्रुत के आधार पर कल्पना के चलते बने आकृति में क्या सचमुच ईश्वर अपने यथा रूप में है? आपसे उत्तर की अपेक्षा है। बताइएगा..


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