खत्म हुआ पत्रकारिता के जायके का सफर

लेखक: संजय दुबे

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पत्रकारिता की दुनियां में अनेक ऐसे हस्ताक्षर है जिनको देखकर आप सीखने की लगन को जुनून में बदल सकते है। मेकियावली ने कहा था हर व्यक्ति अपने युग का शिशु होता है। जिस युग मे जन्म लेता है उस युग की परिस्थितियां उसे प्रभावित करती है। पत्रकारिता से परिचय के साथ साथ ही 1985 के काल मे दूरदर्शन पर चुनावी विश्लेषण के लिए दो किरदारों ने मोर्चा सम्हाला था। हिंदीभाषियों के लिए विनोद दुआ हुआ करते थे और अंग्रेजी भाषा केलिए प्रणव राय होते थे। आमतौर पर प्रसारण के लिए सरकार के तंत्र को सिर्फ सरकार के उजले पक्ष को परोसने का एक नियंत्रित संसाधन माना जाता है लेकिन इस मिथक से विनोद दुआ ने लोगो के मिथक को तोड़कर निष्पक्ष पत्रकारिता की नई चिंगारी जलाई थी क्योंकि कुछ सालों पहले ही देश ने व्यवस्थापिका ने कलम की निगहबानी पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया था। एक दौर में मनपसंद लिखवाना ही संस्कृति बन गई थी। बहरहाल विनोद दुआ ने दूरदर्शन पत्रकारिता की परिभाषा बदली। वे आक्रामकता के पैरवीकार थे। अच्छे अच्छे मंत्रियों, सांसदों को विनोद दुआ ने साहसिक रूप से जनता के समक्ष रखा। मुझे अच्छे से याद है कि माधवराव सिंधिया को उन्होंने हमारी सरकार कहने पर आपकी सरकार कह कर प्रतिप्रश्न किया तो सिंधिया जी भी हड़बड़ा गए थे।

 दूरदर्शन के बाद निजी चैनल्स के आने के बाद युवा मंच, आपके लिए जैसे कार्यक्रम चलाए जो साहस के प्रतिरूप थे। किसी मंत्री को 10 में से 3 अंक देना उनकी ही महारत थी। जायका उनकी पसंदगी का कार्यक्रम था। इसके जरिये उन्होंने देश के कोने कोने के जायके को चटोरो के मुंह में पानी लाने का काम किया। देश के बड़े रसोइयों को छोड़कर सड़क के ढाबे को विनोद ने दुआ दी दुआ दिलवाई।

  अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में विनोद भटके, किसी भी व्यक्ति,संस्था, दल के विरोध का स्थायीकरण नही होना चाहिए क्योंकि कोई भी पक्ष दूध का धुला नही है।अच्छा - बुरा दोनो द्रष्टिकोण होता है, निष्पक्ष होने से समभाव आदर बना होता है। विनोद इसी में चूक कर गए।

कोई भी व्यक्ति अपने सोंच के जंजीरों में जकड़ा होता है उससे मुक्त होना साधारण बात नही होती विनोद भी बरी नही होते है। उनको जीवन जीने के लिए 5 अंक दिए जाते है।

 विनोद से साहस तो सीखी जा सकती है। यही उनको श्रद्धांजलि होगी।


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