एक अदद से नायक -धर्मेंद्र

लेखक: संजय दुबे

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अगर आपको आंख बंद कर धर्मेंद्र की किसी फिल्म का नाम लेने के लिए कहा जाए तो शायद आप शोले का नाम ले सकते है ये फिल्म उनके कद काठी के अनुरूप की आदतन फिल्मो की एक कड़ी थी लेकिन मैं जिस धर्मेंद्र को जानता हूं वह धर्मेंद्र सत्यकाम, दोस्ती, चुपके-चुपके, दिल्लगी फिल्म का धर्मेंद्र है। आमतौर पर व्यावसायिक मसाले वाली फिल्मों में जिस कलाकार को एक बार सफलता मिल जाती है उसके बाद फिल्में बदलती जाती है लेकिन नायकत्व जस का तस रहता है। धर्मेंद्र जब फिल्मो में आये तो पारिवारिक विषयो के इर्दगिर्द ही कथानक घूमा करती थी।जब दर्शक विषयांतर हुआ तो अपराध जगत का आगमन हुआ। खलनायक के खलनायकत्व को खत्म कर बुराई पर अच्छाई की जीत का नया संसार जन्म लिया तो भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में दरासिंग हीमेन नही कहलाये बल्कि धर्मेंद्र को ये खिताब मिला था। अमूमन वे हर फिल्म में बुरे किरदारों के नायक हुआ करते थे।अगर उनकी फिल्मों का पोस्टमार्टम किया जाए तो वे इतनी चोरी कर चुके है कि वे अमेरिका में रहते तो पांच एक सौ साल की सज़ा पा जाते। उनकी ऐसी भी फिल्मो को हमने देखा है लेकिन एक ऐसा व्यक्ति जिसकी दंतपंक्ति दर्शनीय हो और मुस्कान कहर बरपाने वाली हो उसको भले ही शोले पहिं में वीरू के रूप में देखना सुखनवर हो लेकिन इस कलाकार की आत्मा को देखना हो तो निश्चित रूप से सत्यकाम,चुपके चुपके,दोस्ती, और दिल्लगी जरूर देखना चाहिए। ये फिल्में धर्मेंद्र के वीरू छाप फिल्मो से पलट अहिंसक फिल्में है जिनमे धर्मेंद्र को ज्यादातर एक अध्यापक की भूमिका में जीने का अवसर मिला था। इन फिल्मों में धर्मेंद्र की आत्मा को इस बात का सुकून मिला होगा कि उन्हें खलनायको को पीटने से निजात तो मिली। इन फिल्मों में वे सम्मान के हकदार है ये बात मैं दमदारी से कहूंगा। इनसे जुदा एक फिल्म जेहन में है- प्रतिज्ञा। ये फिल्म मेरी पसंदगी की रही है क्योंकि अपने स्वभाव के विपरीत धर्मेंद्र की हास्य भूमिका में आना पड़ा था।नाच न आने के बावजूद नाचना पड़ा था। 

वे हिंदी, अंग्रेजी के साथ साथ उर्दू के भी जानकार है।उम्र के 86 वे पड़ाव में स्वस्थ है।आज उनका जन्मदिन है ।

शुभकामनाएं प्रोफेसर।


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