दिलीप कुमार याने दमदार कुमार
लेखक: संजय दुबे
इसी साल 98 के उम्र में दिलीप कुमार ने आखरी सांस ली थी।आज होते तो 99 के फेर में पड़ते लेकिन नही पड़ पाये और सुपुर्द ए खाक हो गए। भारत जहां आज़ाद के पहले से लेकर आज़ादी के बाद के वर्षों में मनोरंजन का एक मात्र साधन फिल्में हुआ करती रही है उस साधन में दिलीप कुमार एक साध्य थे अभिनय के। उनके जमाने के राज कपूर, देवानंद सहित अन्य कलकरोवके हुजूम में दिलीप कुमार अभिनय के चलते फिरते प्रयोगशाला थे। 1950 से लेकर 1965 तक दिलीप कुमार सफलता के बड़े नाम थे, सफलता के पर्याय। जोगन, बाबुल,दीदार, तराना, दाग, अमर, उड़नखटोला, इंसानियत, देवदास, नया दौर, यहुदी, मधुमती, पैगाम, आज़ाद, कोहिनूर, आन, मुगल ए आज़म, गंगा यमुना, लीडर, दिल लियस दर्द लिया,राम श्याम, आदमी उनकी लगातार सफल होने वाली फिल्में थी। दिलीप कुमार ने 1952 में पहली टेक्नी कलर फिल्म "आन" में अभिनय किया था जिसका प्रीमियर लंदन में हुआ था।
तब के जमाने मे भारतीय सिनेमा में दुख को परोसना एक मजबूरी थी। जिसका अंत भले ही सुखद होता था लेकिन अवसादिक माहौल रचा बसा होता था।इसका प्रमाण ये भी है कि दिलीप कुमार स्वयं भी अवसाद के शिकार हो गए थे। आज डिप्रेशन जो आम बीमारी हो गयी है उसका सार्वजनीकरण दिलीप कुमार ने किया था। उनको हल्के मूड की फिल्में करने की सलाह दी गयी ।राम और श्याम उनकी इसी प्रकार की हल्की फुल्की फिल्म थी।
हर कलाकार के समान दिलीप कुमार भी उम्रदराज होने के कारण दर्शको द्वारा खारिज किये गए लेकिन वे 1980 के दशक में चरित्र अभिनेता के रूप में वापस लौटे। क्रांति, विधाता, शक्ति, दुनियां, कर्मा, सौदागर, उनकी बेमिसाल फिल्में रही है। उन्होंने अपने अभिनय का लोहा दोनो काल मे मनवाया।
मैंने उनको मुगल ए आज़म में बेहतर से बेहतरीन अभिनय करते देखा है,राम औऱ श्याम में उनको हास्य की नई परिभाषा गढ़ते देखा। गंगा जमुना में डाकू की भूमिका में सशक्त होते देखा है। शक्ति,कर्मा औऱ सौदागर में वे अभिनय के चरम पर रहे।
माना जा सकता है कि अभिनय के बजाय दिलीप कुमार भूमिका में रच बस जाते थे।
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