क्या कवि भी किसी मीडिया हाउस की संपत्ति होते है?

लेखक: संजय दुबे

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आकाशवाणी, दूरदर्शन जैसे माध्यमो को सरकार के नियंत्रण में रहकर बोलने दिखाने के कार्यक्रम को अस्सी औऱ अब के दशक में देश देख सुन चुका था और अब फिर से देख सुन रहा हैं। अंग्रेजों के द्वारा विभाजन करो और राज करो का फार्मूला जिन्हें लगाना है वे सफल हो रहे है लेकिन दुख की बात है कि लोकतंत्र का चौथा खम्बा सत्तारूढ़ दलो के रंग में रंगते जा रहा है। इसका फायदा भले ही राजनैतिक दलों को मिल रहा है लेकिन नुकसान आम जनता को हो रहा है। किसी जमाने मे पत्रकारिता भी चिकित्सा के समान मानव सेवा हुआ करती थी। आम जनता के हित औऱ मनोरंजन के मुद्दे पाठकों को संतोष देते थे। जब किसी मिशन में व्यवसायिकता अपने पांव मजबूत करने लगती है तो निःस्वार्थ शब्द से निः विलोपित होने लगता है। चिकित्सा में व्यवसायीकरण ने अपना आधिपत्य जमा लिया है मानव सेवा की भावना अब कम हो गयी है । मल्टीप्लेक्स अस्पतालों के आने से चिकित्सा व्यवस्था अब शानदार व्यवसाय बन गया है। मरीज अब मुर्गे में बदल गया है।कितना काटा जा सकता है ये मायने रखता है। इलेक्ट्रॉनिक औऱ प्रिंट मीडिया का भी व्यवसायीकरण हो गया है। आजकल मीडिया हाउस हुआ करते है । ये समाज सेवा के लिए आये है ये कहना कठिन से हो चला है। जब हित मानव सेवा से परे जाकर लाभ हानि के बेलेंस शीट में परिवर्तित हो जाये तो स्वार्थ प्रथम हो जाता है।

  इलेक्ट्रनिक औऱ प्रिंट मीडिया का काम सूचना देने के साथ साथ मनोरंजन भी परोसना है। मनोरंजन करने वाले कलाकार किसी दल के हो सकते है किसी पंथ से जुड़े हो सकते है किसी विचारधारा के समर्थक हो सकते है लेकिन जब वे जनमंच पर होते है तो वे माध्यम होते है मनोरंजन के। दो दिन पहले कुमार विश्वास रायपुर आये, वे सरल और कठिन हिंदी के बेहतरीन कवि है। उन्होंने हिंदी को अंग्रेजी के बढ़ते प्रभुत्व काल मे एक नई पहचान दी है। दलो की विचारधारा से ऊपर वे राष्ट्रवाद के बड़े हस्ताक्षर है। उन्हें रायपुर के 30 -35 हज़ार लोगों ने सीधे देखा सुना।उनके साथ छत्तीसगढ़ के दो कवि और भी थे लेकिन इनके आने,कविता पाठ के समाचार एक समाचार पत्र ( जो सह आयोजक था) को छोड़कर किसी भी समाचार पत्र में स्थान न पा सका।

क्या ये स्वस्थ परंपरा है?

 कुछ समय से समाचार पत्रों से जुड़े संपादकों, अथवा नामवर पत्रकारों के साथ घटी सुखद दुखद घटना उनके ही प्रतिष्ठान में ही सुर्खियों में सिमट जाती है। ये पीड़ादायक है। मुझे लगता है कि शहर में कोई भी कार्यक्रम कोई भी संस्थान कराए लेकिन कार्यक्रम को सभी समाचार पत्रों में प्रमुखता मिले ।आम जनता को एक रखने वाले समाचार पत्रों को अलग अलग डंगाल में बैठे देखने से मन आहत होता है।


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