ग़ालिब
लेखक: संजय दुबे
रगो में वे दौड़ने के थे नहीं कायल
शेर, हमारे लिए जंगल का ही शेर हुआ करता था जब तक ये समझ मे नही आया था कि शेर लफ़्ज़ों में भी होता है औऱ शफो में भी। कालांतर जब पठन -पाठन का दौर शुरू हुआ तो शेर शायरी भी पाले में पड़ गए। तब ये भी कहा जाता था कि आशिकी का पहला कदम और अंदाज़ बयां के लिए शेर जुबां पर होने चाहिए( याने अच्छा आशिक़ वो जो शेर सुना दे)। मीर तकी मीर का नाम शेर शायरी की दुनियां में बड़े अदब से लिया जाने वाला नाम था लेकिन हमारी जवानी जिससे रूबरू हुईं वे जनाब ग़ालिब ही थे। यहां पर गुलज़ार साहब, जगजीत सिंह साहब सहित जनाब नसीरुद्दीन को आदाब कहने का मन है क्योंकि इन तीनो ने ग़ालिब की जिंदगी और बंदगी दोनो को हकीकत में बदल दिया था। हमने ग़ालिब कैसे थे ये नसीर को देखकर समझा। ग़ालिब ने लिखा क्या वो जगजीत से सुना। शायद ग़ालिब को ग़ालिब से अच्छा बयां जगजीत सिंह कर गए।
मेरे लिए ग़ालिब का ये शेर उनके लिए ही मायने रखता है और भी दुनियां में सुखनवर बहुत अच्छे कहते है कि ग़ालिब का अंदाज़ ए बयां और सालो से ग़ालिब पठन पाठन के हिस्सा रहे है। उनको पढ़ना अच्छा लगता है उसकी वजह ये है कि वे सरल रहे है उर्दू जुबा के होने के बावजूद। उनकी प्रासंगिकता रही है कि चार सौ साल बीत जाने के बाद भी उनके लिखे शेर सामयिक बन जाते है। अगर आप संसद में बजट सत्र में ध्यान दे तो लगभग हर। वित्त मंत्री आपको ग़ालिब से रूबरू कराते दिखेगा।
ग़ालिब की ये पंक्तियां आपके लिये है-
ये जो हम हिज़्र में दीवार ओ दर को देखते है,
कभी सबा को कभी नामाबार को देखते हैं।
वो आये हमारे घर खुदा की कुदरत है,
कभी हम आपको कभी अपने घर को देखते है।
आज ही के दिन असदुल्लाह खां ग़ालिब इस जहां में आये थे।
कहते है कि लिखने वालों का केवल एक धर्म होता है - सिर्फ औऱ सिर्फ लिखने का। वे केवल सुखनवर होते है। उनका अंदाज़ भी जुदा होता है औऱ बयाबाज़ी भी।
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