गांधी और रोजगार
लेखक: संजय दुबे
आज ही के दिन याने 30 जनवरी 1949 को एक व्यक्ति के रूप में महात्मा गांधी के जीवन का अंत हो गया था लेकिन विचार कभी मरते नहीं है, गांधी जी के भी विचार समय के साथ सामयिक होते गए। गांधी जी देश की आबादी के भविष्य को जान रहे थे इसमे होने वाली वर्द्धि को समझ रहे थे। एक इंसान जन्म लेता है तो एक पेट और दो हाथ लेकर आता है अर्थात एक के लिए दो की व्यवस्था पूर्व निर्धारित होती है।हर व्यक्ति समसामयिक होता है भविष्य भी देखता है तो अपने जीवनकाल के बीस तीस साल आगे देखता है लेकिनमहात्मा गांधी ने देश के पचास साल का आंकलन कर कुटीर उद्योग को सहकारिता में साथ आगे बढ़ाने का विचार रखा था। महात्मा गांधी के समय देश शहरों का देश न होकर गाँवो का देश था। कृषि मुख्य रोजगार और आय का साधन था। परंपरागत रोजगार के रूप में गाँव की आवश्यकता ही तत्समय में प्रमुख थी। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्थानीयकरण के सिद्धांत को महात्मा गांधी समझ रहे थे इसलिए स्थानीय आवश्यकता और पूर्ति के लिए कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने के पक्षधर थे। महात्मा गांधी के अनुसार व्यक्ति की आवश्यकता असीमित न होकर सीमित थी जिसमे मूलभूत आवश्यकता के रूप में रोटी, कपड़ा और अंत मे मकान था। रोटी के लिए कृषि मुख्य साधन था और देश मे अभाव भी था। उन्नत खेती के लिए आधुनिक तकनीक नहीं थी। खेती मानसूनी जुआँ कहलाती थी। सिचाई के संसाधन सीमित थे, खाद बीज की आवश्यकता बनी हुई थी।इसके विकल्प के रूप में महात्मा गांधी स्थानीय सहकारिता पर बल देते रहे। वे ये समझाते रहे कि देश मे श्रम आसानी से उपलब्ध है और इसके बल पर कुछ भी हासिल किया जा सकता है। गाँव मे छोटे छोटे उद्योग की सामयिकता को उस समय शिक्षा के अभाव में नही सीखा गया लेकिन कुटीर उद्योग की महत्ता को सर्वाधिक आबादी वाले देश चीन ने महज तीन दशक पहले समझा और आज स्थिति ये है कि हर देश की बुनियादी आवश्यकताओं की आपूर्ति चीन ही कर रहा है अर्थशास्त्र में उद्योग के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता कच्चे माल की उपलब्धता है । चीन ने हर गाँव मे कच्चे माल की उपलब्धता को सुनिश्चित किया और गाँव पूरी आबादी को निर्माण कार्य मे लगा दिया। महात्मा गांधी के रोजगार परक कुटीर उद्योगों की परिकल्पना को यदि सरकारे समुचित रूप से व्यवस्थित कर लेती तो आज दुनियां में चीन के स्थान भारत खड़ा होता। समय कभी भी पीछे नही होता है। महात्मा गांधी में कुटीर उद्योग की परिकल्पना के आधार पर आज अमूल , लिज्जत , डी मार्ट , पतंजलि,जैसी स्थानीय संस्थाएं मिसाल कायम कर रही है। यदि हम देश मे होने वाले आयात को ध्यान में रखकर उसके विकल्प के रूप में स्थानीय व्यवसाय के लिए आदर्श वातावरण तैयार कर पाए तो देश मे निजि रोजगार को बहुत बड़ा मंच मिल सकता है। सरकारी रोजगार की अपनी सीमा है हर किसी को सरकारी रोजगार नही मिल सकता है लेकिन कुटीर उद्योग को अपना कर रोजगार के अवसर जरूर निर्मित किये जा सकते है। यही महात्मा गांधी को दी जाने वाली सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है। छत्तीसगढ़ के परिपेक्ष्य में देखे तो इस राज्य को धान का कटोरा माना जाता है। धान से मिलने वाले चाँवल के बहुउपयोग है। धान के छिलके से लेकर चाँवल तक हर वस्तु की उपयोगिता है। राज्य के मुख्यमंत्री धान के खेती में , पर चाँवल के अन्य उत्पाद के लिए भी आदर्श वातावरण बनाया जाए तो कुटीर उद्योग के रूप में कार्य करने के लिए राज्य के पास धान के रूप में प्रचुर मात्रा में कच्चा माल उपलब्ध है। इसी प्रकार बुनकर उद्योग सहित शिल्प का कार्य भी छत्तीसगढ़ राज्य का ग्रामीण उद्योग है।मुख्यमंत्री भूपेश बघेल स्वयं कृषक है और राज्य के ग्रामीण परिवेश की उपलब्धता और विशेषता को जानते समझते है। वे महात्मा गांधी के कुटीर उद्योग और स्थानीय रोजगार के सिद्धांत पर अमल कर गढ़बो नवा छत्तीसगढ़ की साकार होती परिकल्पना में क्रांति का आव्हान कर सकते है।
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