युक्रेन में रूसी हमले का सवाल

लेखिका: डॉ. चयनिका उनियाल

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यूक्रेन पर रूस के हमले को समझने के लिए थोड़ा इतिहास में झांकने की आवश्यकता है। शीतयुद्ध के दौरान अमेरिका ने 4 अप्रैल 1949 को उत्तरी अटलाण्टिक सन्धि संगठन (अंग्रेज़ी: North Atlantic Treaty Organization, NATO ; देवनागरी: नॉर्थ ऍटलाण्टिक ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेशन, नाटो ) नामक एक सैन्य गुट का गठन किया था, जिस पर १२ देशों- फ्रांस, बेल्जियम, लक्जमर्ग, ब्रिटेन, नीदरलैंड, कनाडा, डेनमार्क, आइसलैण्ड, इटली, नार्वे, पुर्तगाल और संयुक्त राज्य अमेरिका, ने हस्ताक्षर किए थे। संगठन में एक सामूहिक सुरक्षा की व्यवस्था के तहत सदस्य राज्य के बीच बाहरी आक्रमण की स्थिति में सहयोग करने के लिए सहमती बनाई गई। इसका मुख्यालय आज भी ब्रुसेल्स (बेल्जियम) में स्तिथ है। नाटो के प्रत्युत्तर में सोवियत संघ के नेतृत्व में पूर्वी यूरोप के देशों- पोलैंड, पूर्वी जर्मनी, चैकोस्लोवाकिया, हंगरी, रोमानिया और बुल्गारिया, के गुट ने सन् 1955 में वारसा संधि का गठन किया। इसका मुख्य काम था -नाटो में शामिल देशों का यूरोप में मुकाबला करना।

सोवियत संघ के पतन के साथ 25 फरवरी, 1991 को हंगरी में हुए एक सम्मेलन में वरसा सन्धि 'समाप्त' घोषित कर दी गयी जिसमें सदस्य देशों के रक्षा मन्त्री तथा विदेश मन्त्री शामिल थे। परन्तु शीत युद्ध की समाप्ति के बाद भी नाटों की सदस्य संख्या का विस्तार होता रहा। 1999 में मिसौरी सम्मेलन में पोलैण्ड, हंगरी, और चेक गणराज्य के शामिल होने से सदस्य संख्या 19 हो गई। मार्च 2004 में 7 नए राष्ट्रों को इसका सदस्य बनाया गया फलस्वरूप सदस्य संख्या बढ़कर 26 हो गई। ऐसे में सवाल उठतें है कि शीतयुद्ध व वरसा संधि की समाप्ति के पश्चात और संयुक्त राष्ट्र संघ की उपस्थिति में नाटो की प्रासंगिकता क्या है? पश्चिमी देशों ने 1990 में ये वादा किया गया था कि पूर्व की ओर नाटो एक इंच भी विस्तार नहीं करेगा, लेकिन वो इस वादे को क्यों तोड़ा गया? जब संयुक्त राष्ट्र संघ है तो नाटो जैसी व्यक्तिगत दादागीरी की दुकान अमेरिका व पश्चिमी राष्ट्र क्यों चला रहे हैं? 

रूस का युक्रेन पर हमला बेशक निंदनीय है लेकिन यह भी तो सच है की इस युद्ध के स्रोत अमरीकी साम्राज्यवादियों की विस्तारवादी नीतियां और युक्रेन को आज के दौर में अपने षड़यंत्र के औजार के रूप में इस्तेमाल करने की नीति में हैं। यूक्रेनी राष्ट्रपति को अमरीका की कठपुतली बनाने का प्रयास किया जा रहा था। ऐसे में प्रगतिशील व्यक्तियों की हमदर्दी निश्चित टूर पर निर्दोष युक्रानी जन के साथ होनी चाहिए फिर भी इस अंतर-साम्राज्यवादी युद्ध में कोई भी पक्ष चुनने से इनकार करना चाहिए और शीघ्र युद्ध को समाप्त करने पर अन्तर्षाट्रीय दबाव बनाना चाहिए। साथ ही हमें एक तरफ़ा तौर पर रूस या यूक्रेनी/अमरीकी नीतियों के समर्थन या विरोध की नीति से बचना चाहिए और नाटो जैसी सैनिक संधियों की समाप्ति की पुरजोर मांग करनी चाहिए। 

मैं पुन: दोहराऊंगी कि ये सैन्य संधियाँ हमेशा भयानक युद्ध स्थितियों के लिए जिम्मेदार होती हैं। जिन्हे शंका हो वो यूरोपीय युद्धों व् विश्वयुद्धों का इतिहास खोल कर पढ़ लें।

 

लेखिका के बारे में -

डॉ. चयनिका उनियाल, 

फेलो साउथ एशियन डेमोक्रेटिक फोरम (2021 से), जूनियर फेलो नेहरू मेमोरियल संग्रहालय और पुस्तकालय (2009-11) 

वरिष्ठ सहायक प्रोफेसर,  इतिहास विभाग, श्यामा प्रसाद मुखर्जी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय


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