सच का सिनेमा या सिनेमा का सच

लेखक: संजय दुबे

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इन दिनों कश्मीर फ़ाइल की चर्चा है। इस सिनेमा में 32 साल पहले की पृष्ठभूमि को कथानक बनाया गया है। साहित्य और उसके बाद सिनेमा को समाज का दर्पण माना जाता है। समाज मे घटित होने वाले घटनाओ के आधार पर ही साहित्य सृजित होता है लेकिन सिनेमा में दो प्रकार की विभाजन रेखा है। ये उद्योग है जिसमे व्यावसायिक लाभ का मुद्दा पहले रहता है। जोखिम मोल न लेने की आदत इस उद्योग को शुरू से है। इस कारण मसाला फिल्मे 100 में 90 बनती है। इसका कारण भी है कि आम जिंदगी में आदमी इतने झंझटो में घिरा रहता है कि उसे उन्ही झंझटों को पर्दे पर देखना नही सुहाता। यही कारण है कि फिल्म उद्योग मसाला फिल्मे बनाने में ध्यान देता है। 1932 से देश मे सवाक फिल्मो का दौर शुरू हुआ उसके पहले अवाक फिल्में बना करती थी। धार्मिक विषय ही प्रमुख हुआ करते थे , समय के साथ सामाजिक विषय प्रमुख हुए पर ये नाटकीय ज्यादा हुआ करते थे। happy ending के आधार पर फिल्मे पसंदगी थे सो 10 में से 9 फिल्मो का मुद्दा यही रहा।ढेर सारे गाने के साथ फिल्मे बढ़ती और लोग मजे लेते रहे। बीच बीच मे तीसरी कसम, डॉ कोटनिस, जिस देश मे गंगा बहती है, गंगा जमुना, मुझे जीनो दो, जैसी फिल्में बनती रही। लेकिन संख्यात्मक रूप जे ऊंट के मुंह मे जीरा ही रही। नब्बे के दशक में जब व्यावसायिक फिल्मे लॉस्ट एन्ड फाउंड विषयो के साथ मल्टी स्टार फिल्मे बनाने में व्यस्त था जिसमे नाटकीयता की भरमार थी तब चक्र,मंडी,गर्म हवा,आक्रोश,36 चौरंगी लेन, फिल्मो का दौर चला। ये फिल्मे सार्थक फिल्मे कहलाई क्योकि इनमे "सच" था। सच कडुआ होता है इस कारण इन फिल्मों को देखने वाला एक वर्ग भी जन्म लिया जिन्हें बुद्धजीवी माना गया। ये दौर भी ज्यादा नही चला और फिर से गोविंदा जैसे कलाकारों की फिल्में दौड़ने लगी। अमिताभ बच्चन जैसे कलाकारों को रोजी रोटी के लिए समुंदर में नहा कर नमकीन हो गयी हो गाने पर नाचना पड़ा। यद्यपि अमिताभ ने अपने उतरार्द्ध में पीकू,पिंक, सरकार राज अग्निपथ, जैसे सार्थक फिल्मे की लेकिन 200 फिल्म में मात्र 5 %!। नसीरुद्दीन जैसे कलाकारों ने भी ये मान लिया था कि सार्थक फिल्मे रोजी दे सकती है लेकिन रोटी के लिए नाटकीय फिल्मो के पनाह में जाना होगा। 2000 के बाद साल से देश मे त्वरित विषयो को लेकर फिल्म बनाने की साधारण कोशिश जारी रही। ।मद्रास कैफे, ब्लेक,स्पेशल26, रेड,पेडमेंन, जॉली एल एल बी, दृश्यम, पिंक , हिंदी मीडियम, फिल्मे सार्थक रही। अब कश्मीर फाइल आयी है। बहुत समय पहले धारावाहिक "तमस" ने भी ऐसी ही सफलता हासिल की थी। सार्थक फिल्मे समाज का ही हिस्सा है। नजरिया अलग अलग होता है। जब दुनियां में मॉडर्न आर्ट जन्म ले रहा था तब कला प्रेमियों को समझ मे नही आता था तब मॉडर्न आर्ट के प्रवर्तकों ने बताया था कि आप अपनी नही हमारी नज़रो से देखो। कश्मीर फ़ाइल भी नजरिया से ही देखी जाए।


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