ये हाथ नहीं हथौड़ा है
लेखक: संजय दुबे
इस दुनियां में कितने भी स्वचलित मशीनों का अविष्कार क्यो न जाए लेकिन उनको चलाने के लिए मनुष्य के हाथ की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता है। स्वचलित मशीन भी हाथो के सहयोग से ही बनेगी इस सर्वमान्य सत्य को कभी खारिज नही किया जा सकता है। ये दुनियां मशीनों पर निर्भर कुछ 100- 200 साल पहले ही हुई है उसके पहले सारे काम इंसान के हाथ के ही भरोसे हुआ करते थे। बड़े से बड़े पुल, बड़ी से बड़ी इमारत, लंबी लंबी सड़के, सभी प्रकार के निर्माण और विध्वंस भी मानव के हाथ पर ही निर्भर था। हाथ की कीमत को जिन्होंने समझा वे शासक थे जाहिर है उन्होंने निर्माण के लिए मानव को माध्यम बनाया और निर्माण की आतुरता ने शोषण को जगह भी दी। धीरे धीरे आदमी को काम का माध्यम बना कर उसके सामर्थ्य से ज्यादा काम लेने की परंपरा शुरू हुई ओर फिर श्रम बिंदु के शोषण की पराकाष्ठा भी देखा गया। श्रम की भट्टी में इंसान को झोंक दिया गया। उसके एक दिन में सोने के 8-9घंटे के अलावा बाकी के 15 घण्टे काम मे जाया होने लगा।अंततः श्रम का शोषण मानवीयता की हद को पार करने लगा तो श्रम बिंदु ने बगावत का थाम लिया। 1 मई18884 को शिकागो में हज़ारो मजदूरों ने काम के असीमित घण्टो के खिलाफ सड़क पर आगये। हिंसात्मक आंदोलन में गोलीबारी हुई और कई मजदूरों को जान से हाथ धोना पड़ गया। 1889 में मास्को में काम के घण्टे 8 निर्धारित हुए और यही से मजदूर दिवस की शुरुवात हुई। अब 8 घण्टे काम 8 घण्टे मनोरंजन और 8 घण्टे आराम के तय किये गए। भारत मे इसे 1923 मे मनाना शुरू किया गया। अभी भी विश्व के सभी देश एक ही दिन मजदूर दिवस नही मानते है। सबसे बड़े देश अमेरिका में श्रमिक दिवस अक्टूबर के आखिर सोमवार को मनाया जाता है। जो भी हो एकता में दम है ये 1 मई सिद्ध करता है जिसने 8 घण्टे की समय सीमा के लिए हाथ को हथोड़े में बदल दिया।
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