अद्भुत परंतु कठिन केदारनाथ

लेखक - संजय दुबे

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जोशीमठ में हमारा कार्यक्रम रोप वे से पहाड़ो के खूबसूरत हिस्से ओली जाना था। लगभग 4 किलोमीटर इस रास्ते मे प्रकृति की छटा निराली है जिसे देखने के लिए आने जाने में एक घण्टे का समय लगता है। इसकी टिकट 1 हज़ार रुपये प्रति व्यक्ति है जो GMVN के वेबसाइट के माध्यम से ऑनलाइन कराई जा सकती है। हम टिकट बुक कराकर भी ईश्वर के दर्शन को प्राथमिकता दिए। बद्रीनाथ से केदारनाथ की दूरी241 किलोमीटर है। पुनः जोशीमठ होते हुए हम लोग पीपलकोटी में GMVN के अथिति गृह में रुक गए क्योकि बद्रीनाथ में रात जागरण ओर दर्शन के कारण थक गए थे। रात्रि मे आराम कर दूसरे दिन सुबह हमने चमोली,नारायण प्रयाग, कर्णप्रयाग, होते हुए हम गुप्तकाशी में पूर्व से आरक्षित किये होटल में पहुँचे। रास्ते मे देवदार के असंख्य ऊंचे पेड़, घुमावदार सड़के, बस ऊपर और ऊपर की तरफ चढ़ाई, नीचे देखो तो कई बार घबराहट भी होती कि चूक हुई और खेल खत्म लेकिन ऐसा अमूमन होता नही है। रास्ते मे केदारनाथ से वापस आते अनेक लोगो से मुलाकात हुई। हर का अनुभव जुदा जुदा था। अधिकांश लोग नकारात्मक अनुभव ज्यादा बताते है। जैसे घोड़े का गिरना, मौसम की अस्थिरता, दुर्गम रास्ता,। बहुत कम लोग उत्साह की बाते करते है। ये बात तो है कि केदारनाथ की यात्रा आसान नही है। बहरहाल हम लोग गुप्तकाशी में एक दिन रुक कर सोनप्रयाग पहुँच गए। यहां पता लगा कि मौसम की खराबी के कारण यात्रा स्थगित है ।हम लोग एक छोटे होटल जिसमे एक कमरे में 5 लोगो के रुकने की सुविधा थी ,उसमे रुक गए और रात एक बजे स्नान कर स्थानीय वाहन से 50 रुपये प्रति सवारी के हिसाब से गौरीकुंड पहुँच गए। कहते है कि गौरीकुंड में स्नान करके ही आगे जाया जाता है लेकिन हम लोग स्नान कर चुके थे। गौरीकुंड से केदारनाथ पुराने मार्ग से 16 और नए मार्ग से 21 किलोमीटर पड़ता है। पुराना मार्ग 2013 के विध्वंस के बाद बंद है। गौरीकुंड से ही केदारनाथ जाने के लिए घोड़े,पालकी, डोली मिलते है जिनकी रसीद कटती है। लोग सुबह ऑफिस खुलने का इंतज़ार करते है लेकिन घोड़े वालो के पास रसीद होती है।जिसके कारण यात्रा जल्दी प्रारम्भ हो जाती है। लोगो ने बताया कि घोड़ा सबसे विश्वसनीय माध्यम है जो लगभग 4 घण्टे का समय लेता है उसके बाद डोली(पीठ पर) और फिर 4 व्यक्तियों द्वारा पालकी में क्रमशः 5,7 घण्टे लगते है। घोड़े का किराया 2100 रुपये है केवल जाने का आने पर 1500 रुपये लगता है। हम लोग घोड़े से एक तरफ का किराया दिए क्योकि हमे केदारनाथ में रुकना था। लोग बताते है कि मार्ग संकरा है,फिसलन है, एक तरफ नदी, घाटी है,। ऐसा नही है दो घोड़े आराम से आते जाते है साथ साथ आदमी भी चलते है। अब जानवर तो इतना समझदार है नही सो थोड़ा बहुत धक्का कभी कभी लगता है। इस रास्ते पर नए घोड़े भी होते है जिनकी जानकारी हमे नही होती है, वे थकते है, चिड़चिड़ाते है,। रास्ते मे हल्की बारिश , झरने के कारण रास्ता कीचड मय हो जाता है। घोड़े लीद, पेशाब भी करते है । एक बात निराली थी घोड़ों के शौचालय भी तय है जहां रुक कर वे पेशाब करते है। उनके पानी पीने का भी स्थान तय है जहां वे स्वयमेव रुक जाते है। सबसे दुखद बात जो लगी वो थी पीठ पर इंसान को लेकर कठिन रास्ते पर बिना सर उठाये चलना,, इंसान पेट के लिए कितना बोझ उठाता है? गौरीकुंड से केदारनाथ का रास्ता मनोरम है, आप जैसे जैसे केदारनाथ की तरफ बढ़ते है। पहाड़ो की श्रंखला के साथ नदी का बहाव,घाटी और हिमाचल के मस्तक पर जमे बर्फ को देखने का आनंद ही कुछ और होता है। रास्ते मे आलू के पराठे, मैगी, नीबू पानी, चाय ,काफी, बिस्किट शीतल पेय ही नाश्ता के रूप में मिलता है। रास्ते मे भूख भी बहुत लगती है सो ये मार्ग खाते पीते ही तय करना चाहिए। आखिर 5 किलोमीटर का रास्ता कठिनतम है क्योंकि ऊँचाई बढ़ती जाती है। रास्ते मे बर्फ भी मिली। लगभग 4 .30 घण्टे के बाद हम लोग केदारनाथ से 2 किलोमीटर दूर घोड़े से उतार दिए गए। यहां से पैदल ही रास्ता तय करना होता है। हम लोग मंदिर के तरफ बढ़ रहे थे तो वो जगह भी दिखने लगी जहाँ पर 2013 में बादल फटा था। लगभग 2किलोमीटर की कतार लगीं हुई थी। हमारे साथ के कुछ लोग पहले ही पहुँच गए थे सो लाभ में रहे और एक घण्टे में ही हमे दर्शन हो गए। यहां गर्भगृह में सामान्यतः अनुमति नहीं हैं लेकिन 5000 रुपये की प्रति परिवार रसीद कटा कर रात 12 से 4 बजे तक अभिषेक कर सकते है।। दर्शन के बाद जब मंदिर और आसपास के जगह को देखकर 2013 का दौर आंखों के सामने घूम गया। मंदिर के ठीक पीछे उस समय एक विशाल शिला जिसे भीम शिला कहा जाता है ऊपर से नीचे गिरा, ये ईश्वरीय शक्ति ही है कि ये शिला बिल्कुल सुरक्षा कवच की तरह ही रुका जिसके कारण मंदिर को बादल फटने और मलबे के कारण कोई नुकसान नहीं हुआ। बाकी सारा तहसनहस हो गया था। इस बर्बादी के गवाह आसपास ही है। केदारनाथ के मंदिर का निर्माण पांडवो ने गौत्र और ब्रह्म हत्या के श्राप से मुक्ति पाने के लिए किया था। यही पर शिव नंदी के रूप में भीम को दिखे थे। कहा जाता है कि शिव पांडवो से युद्ध के कारण नाराज़ थे। उन्हें मनाने के लिए पांडव काशी से केदारनाथ आये थे। केदारनाथ मंदिर के पीछे ही आदि शंकराचार्य जी की समाधि स्थल भी है। मुझे आश्चर्य होता है कि 1400 साल पहले दक्षिण से पूर्व में ये व्यक्ति इस जगह आये कैसे होंगे? उनके लिए नतमस्तक हुआ जा सकता है। हम लोग अभिषेक के लिए यही सिंध भवन में रुक गए यहां प्रति बिस्तर 1000 रुपये किराया है, भोजन चाय नाश्ते की अलग से व्यवस्था है। रात 1 बजे हमारी बारी आई।हमने बड़ी तल्लीनता से 10-12 मिनट तक गर्भगृह में पूजा अर्चना की। जीवन मे ऐसे क्षण बहुत कम आते है जब आप ईश्वर से सीधे जुड़ पाते हो। रात विश्राम कर सुबह 5 बजे हमने पैदल ही वापस आने का निर्णय लिया। कुछ लोग जो घोड़े, डोली से गये थे वे उसी से वापस आये। हमे 8 घण्टे लगे नीचे आने में। ढलान में चलने के आदी नही है सो रुक रुक कर आये। नीचे आते आते पैरों के अंगूठे नीले पड़ चुके थे। थकावट मानो सिर से पैर में भर चुकी थी। आखिर में दो कदम चलना भी मीलो चलने जैसा लग रहा था। रास्ते मे ठंड ,गर्मी, बरसात से मुलाकात हुई। मन मे आया कि वास्तव में शिव की लीला अन्य भगवानो की तुलना में अलग ही है। एक सुझाव है कि आप जितने कम समान ले कर चलेंगे उतनी ही सुविधा होगी। गौरीकुंड से आगे गावँ में लाकर सुविधा है जहां आप अपना सामान रख सकते है। हम लोग सोनप्रयाग पहुँच कर घोड़ेवाले और डोली वालो का आभार व्यक्त किया जिनके कारण हमें केदारनाथ के साक्षात दर्शन हो पाए। जब हम गौरीकुंड से 5 किलोमीटर पहले रास्ते पर थे तब बरसात के कारणकेदारनाथ यात्रा स्थगित कर दी गईं। हमने शिव का शुक्र माना कि हमे निर्विघ्न दर्शन हो पाए।


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