हिंदी के पुरोधा और अदने कर्मचारी से क्षमा मांगने वाले राजेन्द्र बाबू

लेखक - संजय दुबे

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 देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद बहुत ही सरल सहज व्यक्ति थे, उनके रहन सहन को देख कर लगता था मानो खेत से कोई किसान निकल कर राष्ट्रपति भवन पहुँच गया हो। सहजता के अलावा देश के पहले राष्ट्रपति का हिंदी प्रेम अनोखा था। वे हिंदी को सर्वश्रेष्ठ मुक़ाम पर पहुँचाने के लिए अपने भगीरथ प्रयास को निरंतरता दिए हुए थे। वे स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में बराबरी की हिस्सेदारी रखे हुए थे लेकिन हिंदी के प्रति उनकी गम्भीरता भी बराबर की थी। वे भारत मित्र, भारतोदया, कमला पत्रिका में लेख लिखते जो समाज मे चेतना के लिए होते थे। वे1912 में कोलकाता में होने वाले अखिल भारतीय हिंदी सम्मेलन में प्रधानमंत्री थे ।1923 में वे काकीनाड़ा अधिवेशन में अध्यक्ष बने थे लेकिन बीमारी के कारण जा नही सके। उनका भाषण जमनालाल बजाज ने पढ़ा। 

वे 1946 में देश के कृषि और खाद्य मंत्री बने। आज़ादी के बाद वे भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष चुने गए। राष्ट्रपति रहते रहते उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "आत्मकथा " लिखी। जिसमे जीवन के दीर्घकालिक घटनाओं का अंकन किया ।इस पुस्तक में उन्होंने सामाजिक रीति रिवाज, संकुचित प्रथाओं से हानि, ग्रामीण जीवन, धार्मिक व्रत उत्सव, त्यौहार, शिक्षण की स्थिति का सूक्ष्म लेखन किया । 

प्रेरक प्रसंग:- राजेन्द्र बाबू उनको आम जनता से मिला नाम था। वे क्षमा के हमेशा पक्षधर थे। एक बार राष्ट्रपति भवन में उनके एक कर्मचारी तुलसी से उनका प्रिय पेन टूट गया। वे बहुत नाराज हुए और उसे सेवा से हटा दिया गया। थोड़ी दिनों बाद राजेन्द्र प्रसाद ने तुलसी को बुलाया और कहा कि तुलसी मुझे माफ़ कर दो। देश के राष्ट्रपति का एक अदने कर्मचारी से क्षमा मांगना बहुत बड़ी घटना थी। इस घटना ने देश के प्रथम नागरिक के मानवीय संवेदना को दिखाया।। ऐसे थे देश के प्रथम नागरिक राजेन्द्र बाबू।


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