फर्क

लेखक - संजय दुबे

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हवाई अड्डे के एक चाय दुकान से 120 रुपये की चाय ,एक अंजान यात्री के साथ बैठकर पी रहा था

  पेपर कप की आधा चाय चुस्कियो में खत्म हो रही थी

मन उलझन में था कमबख्त बचा समय कटे कैसे?

  सामने वाले ने मौन तोड़ा

 120 रुपये की चाय , सचमुच लूट है, भाई साहब

 मैं शांत रहा, खुद भी 120 रु की चाय पी रहा था।

 सामने वाले ने मेरे मौन को सहमति मान फिर कहा- बाहर 5 -10 रु में इससे बेहतरीन चाय मिलती है। यहां तो लूट है।

 मैंने बात को बढ़ाने के बजाय उनसे उनके धंधे के बारे में पूछ लिया

" बिल्डर हूँ सर"

" आप झोपड़ी बनाते है?"

  "क्या बात करते है ।झोपड़ी बनाने वाला कभी यहां बैठकर 120 रु की चाय पी सकता है? मैं फ्लेट बनाता हूँ।बहु मंजिला।"

  "स्वाभाविक है अपने कस्टमर से लाभ लेते होंगे।" मैंने पूछा

 "सर, क्वालिटी भी देते है, इसी की तो कीमत है"

 " अब आपको नही लगना चाहिए कि हवाई अड्डे में 120 रु की चाय लूट है।" मेरी चाय खत्म हो गयी थी

 "आप भी मजे बढ़िया ले लेते है।" सामने वाले ने चाय की अंतिम घूट खत्म करते हुए मुस्कुरा दिया


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