नाबाद 91
लेखक - संजय दुबे
रिटायरमेंट में बाद व्यक्ति के जीवन मे खालीपन आता है नयापन? इसका निर्णय व्यक्ति को खुद करना होता है। चाहे तो खुद उम्र को सिकोड़ कर एकाकी होता जाए, चाहे तो खुद को समय और बीमारी के भरोसे छोड़ दे मृत्यु के लिए या फिर रिश्तों के धागों को छोड़ - तोड़ के एकाकी हो जाये।
लंबी उम्र वरदान भी है और अभिशाप भी,।असवस्थामा याद है! जो जीवन से मुक्त होने के लिए हिमालय की कंदराओं में घाव से रिसते खून से निजात पाने के लिए कृष्ण की बाट जोह रहा है। दिर्घ जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी ये भी है कि आप उम्र की संख्या में जोड़ तो पाते है लेकिन जब अपने से छोटे ही सामने है स्थाई रूप से विदा हो जाते है तो उम्र सचमुच व्याधि लगने लगती है।
ईश्वर ने, इंसान को एक अनिश्चित जीवन दिया है, स्वयं के मृत्यु की तारीख से बेफिक्र रखा है। किसी व्यक्ति की मृत्यु में उसके अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए श्मशान घाट जाने के बाद अंतिम सत्य से आंखे दो चार करने के बावजूद भी व्यक्ति फिर से जीवन जीता है,
समय का मरहम हर व्यक्ति के दुख, को कम करने की रामबाण औषधि है। स्वयं की जिजीविषा (कुछ व्यक्तियों को छोड़कर) के लिए व्यक्ति असहनीय दुखों से थोड़े समय मे निजात पाने की महारथ रखता है। रखना भी चाहिए क्योंकि ईश्वर ने परिवार, समाज, संबंध की परिकल्पना में केवल सुख के धागे नहीं पिरोए है बल्कि दुख की गांठ भी लगाए है।
ऐसे ही परिवेश में मेरे पिता श्री सतानंद दुबे, आज अपने उम्र के 91 वे पड़ाव में पहुँच गए।
अपने जीवन मे उन्होंने स्कूटर खरीदने के बावजूद उन्होंने स्कूटर चलाना नही सीखा। पैदल ही कार्यालय या किसी भी स्थान में जाते रहे।शाम को पैदल घूमना दिनचर्या थी।तब शहरों में चिमनियों से जहर नहीं उड़ते थे।प्रकृति की असीम अनुकम्पा थी लोगो के लिए।शुद्ध वायु का उपहार मिला हुआ था जिसकी परिणीति 91 साल के उम्र की संपूर्णता है।
वे सेवानिवृत्त हुए तो पेड़ पौधों के मित्र बन गए। पौधे लगाना, पेड़ बनाने की जतन करना और उनकी देखभाल सहित रक्षा करने का दायित्व थाम लिया। एक साइकिल में बाल्टी, खुरपी, लोहे का रॉड टांग कर रविशंकर विश्विद्यालय, साइंस कॉलेज, संस्कृत महाविद्यालय, आर्युवेदिक महाविद्यालय के परिसर के अलावा दीनदयाल उपाध्याय नगर के बने बगीचों में अनवरत जुटे रहे। शायद उन पेड़ो का आशीर्वाद ही है कि 91 साल में भी दिनभर में 5 किलोमीटर चल लेते है( धीरे धीरे) रामायण के दोहे चौपाई गुनगुना लेते है। रविवार को मौसम के हिसाब से भजिया आलुगुण्डा खाने में परहेज नही है। स्मृति थोड़ी थोड़ी कम हो रही है, लेकिन पुरानी बातें वह किसी भी क्षेत्र की हो याददाश्त में है।
उनके जन्मदिन को मनाने की प्रक्रिया में वर्तमान के समान केक काटना नही है बस उनके लगाए पौधे पेड़ बनते रहते। दो साल पहले आम का एक पौधा उनसे जन्मदिन में लगवाया गया था आज 10 फुट ऊँचाई पर है, आगे और बढ़ेगा। यही कामना है।
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