आज़ादी का अमृत और उत्सव
लेखक - संजय दुबे
आज देश के हर हिस्से के हर जगह पर देश के शौर्य,शांति और समृद्धि का प्रतीक तिरंगा स्वाभिमान के साथ ओजस्वी दिख रहा है। अपने बल पर जीने की प्रक्रिया में 75 साल गुजर गए। इन बीते सालों में देश ने प्रगति के पथ पर दौड़ लगाते हुए आत्म निर्भरता की दिशा में मील के नए पत्थर को पार करते गया।
आज़ादी के लिए क्रांति के बाद देश मे सबसे बड़ी क्रांति भूख के खिलाफ थी। सिंचाई के लिए भगवान भरोसे बैठे रहने के बजाय देश मे सिंचाई के संसाधन खोजे गए। नेहरू जी के जमाने मे डॉ स्वामीनाथन ने हरित क्रांति का ऐसा उत्साह का मार्ग खोजा कि आज हम गर्व से कह सकते है कि केंद्र और हर राज्य के मुखिया बेखबर होकर सो सकते है ये कहकर कि देश प्रदेश में कोई व्यक्ति भूखा नहीं सो रहा है। एक दौर था जब सरगुजा में रिबेरो पंडा के गले मे "मैं भूखा हूं" की तख्ती टंगी थी और देश के प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी को सरगुजा आना पड़ गया था। एक आज़ाद देश के संविधान में "लोक कल्याणकारी" राज्य की परिकल्पना में कल्याणकारी राज्य तभी माना जाता है जब देश मे कोई भी व्यक्ति भूख से न मरे। आज़ादी के 75 वे वर्ष में देश कल्याणकारी राज्य के रूप में स्थापित हो गया है।
देश जब आज़ाद हुआ था तब अंधेरे के खिलाफ जंग लड़ने की बहुत बड़ी आवश्यकता थी। शहरी क्षेत्रों में तक रात को न्यूनतम रोशनी के लिए विद्युतीकरण की आपूर्ति थी। गाँव मे तो सप्ताह सप्ताह अंधेरा पसरा रहता था। शहरों में भी घण्टो अंधेरा रहता था। तब रोशनी के लिए विकल्प भी नही था पानी और कोयला के लेकिन अब सोलर के क्षेत्र में प्रवेश ने सुदूर जंगलों और ऊंचे पहाड़ियों में उजाले की क्रांति रोशन हो रही है।
राजीव गांधी आये तो देश मे कम्प्यूटर युग की क्रांति हुई।आज देश के लाखों आई टी इंजीनियर दूसरे देश में रोजगार के विकल्प बने है क्योंकि उनके देश मे वेतन बहुत है और हमारे रुपये में मूल्य ज्यादा है।आउटसोर्सिंग का सबसे बड़ा केंद्र आज भारत है
देश के साढ़े पांच लाख गावं जो शहरों से कटे रहते थे आज उनके संपर्क के लिए देश राज्य की सरकारों का सरोकार देखते बनता है। अगर शहर से गावँ जुड़े है तो इसका श्रेय पंडित अटल बिहारी वाजपेयी जी को जाता है। वे गाँव को शहर से जोड़ कर अजर अमर हो गए है। गाँव की अर्थव्यवस्था में सड़को के जुड़ाव के चलते स्वास्थ्य, शिक्षा, को सर्वाधिक लाभ मिला है।
अगले 25 साल में देश के सामने बढ़ती आबादी सबसे बड़ी चुनोती है क्योंकि संसाधनों की सीमितता से इंकार नहीं है। यद्यपि देश के नागरिकों ने अपने आय की तुलना में परिवार को सीमित तो किया है। घरों में अधिकतम 2 बच्चे ही संख्या में नियंत्रित हो रहे है।
दूसरी चुनौती शिक्षा है, देश मे इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा असफल प्रयोग होते रहे है। राजभाषा के बदले परभाषा का आक्रमण ऐसा हुआ है कि 1991 के बाद जन्म लेने वाले बच्चे ५९
नहीं समझते है उन्हें 59 बताना पड़ता है। अंग्रेजी स्कूलों की ऐसी बाढ़ आई है कि हिंदी पाठशाला में वही पढ़ रहा है जिसकी आर्थिक स्थिति खराब है। अब स्थिति ये आगयी है कि सरकारें ही अंग्रेजी माध्यम की स्कूल खोल रही है। निज भाषा का मान न होना एक अक्षुण्ण राष्ट्र के लिए चिंता की बात है। व्यवसायीकरण ने शिक्षा को बाज़ारवाद में बदल दिया है। ऊंचे दुकान तो है पर पकवान फीके निकल रहे है। निजी विश्विद्यालय और तकनीकी संस्थानों की बढ़ती संख्या ने शिक्षा के स्तर को प्रभावित किया है। आज B.Eऔर B.A में फर्क नहीं रह गया है। इंजीनियरिंग के क्षेत्र में 8000 रुपये का मासिक वेतन का स्तर ही समझा रहा है कि इस तकनीकी शिक्षा को गर्त में कैसे डाला गया है। ऐसी शिक्षा पद्धति से देश को निजात मिले ये 75 वे वर्ष के अमृत उत्सव में अपेक्षा है।
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