न use न throw
लेखक - संजय दुबे
कल केरल हाइकोर्ट ने विवाह नाम की संस्था में एक पक्ष को लेकर दूसरे पक्ष के प्रति व्यवहार के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए wife शब्द को वर्तमान पीढ़ी की परिभाषा को संशोधित किया है। हाइकोर्ट ने पश्चिमी देशों के फैशन नुमा लिव इन रिलेशन को भी use and throw मानते हुए आने वाली पीढ़ी को चेताया भी है।
पृथ्वी लोक के बुनियाद में इंसान से लेकर जानवर की दुनियां में आदम और हौवा(अंग्रेजो के adam and eve) याने पुरुष और स्त्री लिंग है। इन्ही के समागम से आज भूलोक में लगभग 7 अरब की जनसंख्या है। स्त्रियों के प्रति पुरुष और स्त्री के संयुक्त सोच के चलते उनकी आबादी 50 फीसदी न होकर कुछ कम है पुरुष और स्त्री को परिवार का निर्माता कहा जाता है और इसी परिवार को विधिक रूप से स्थापित करने के लिए विवाह नाम की संस्था का जन्म हुआ। विवाह के जुड़े पुरुष स्त्री का संबंध अच्छा रहे वे एक दूसरे के पूरक बने करके परिवार बना, समाज बना,।इनके अलावा विधिक संरक्षण के कारण परिवार अनेकानेक बाधाओं, के बावजूद टूटा नहीं। इसका एक बहुत कारण तब बेटी को पराया धन के अलावा स्त्री की अत्यंत कमजोर शिक्षित होने के साथ साथ उसकी आर्थिक विपन्नता भी कारण थी। लड़कियां अपने ही घर मे अपनी माँ सहित अन्य स्त्रियों की स्थिति देख स्वयं को भी दूसरे घर मे ढाल लेती थी
हमारे देश के हिन्दू,जैन,सिक्ख धर्म सहित जातिगत प्रथा परंपरा में विवाह को विदेशों के समान संविदा(contract) न होकर संस्कार माना गया है। विदेशी संस्कृति के हम बड़े पक्षधर रहे है। उनकी अच्छाई भले ही अपना न पाए कमियां जल्दी अपना लेते है। आर्थिक आधार पर संयुक्त परिवार धीरे धीरे एकल परिवार की तरफ बढ़ा। एकल परिवार में भी अब सदस्यों की संख्या जो कभी 6-7 होती थी वह शिक्षित परिवारों में 3-4 तक पहुँच रही है। परिवार में संतानों की संख्या कम होने से उन पर ध्यान पहले से बहुत ज्यादा रखा जाने लगा है। इस कारण संतान की सारी सुविधाएं तत्काल उपलब्ध कराने का काम भी प्रमुख हो गया है। लड़कियों की साक्षरता का प्रतिशत पिछले तीन दशकों में शानदार रहा है और परिणाम ये रहा कि वे लड़को की तुलना में रोजगार के क्षेत्र में आगे आते जा रही है। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने और गूगल से बनती छोटी दुनियां के कारण विदेशों के चोचले भी देश मे असर करते दिख रहे है।
पहले विवाह परिवार तय करता था जिसमे लड़की की सामाजिक, आर्थिक, सुरक्षा को ध्यान में रखकर लड़के खोजे जाते और उत्तरोत्तर विवाह होते लेकिन अब परिस्थितियां बदल गयी है।शादी लगाने वाले परिवार के सदस्यों, पंडित, पुरोहित की जगह कई डॉट कॉम ने ले लिया है। अब खुद लड़के -लड़कियां ही अपना रिश्ता खोज लेते है। इस कारण जातीय विवाह अवधारणा भी टूटते जा रही है। एक विकसित विचार के आधार पर ये बात भली है लेकिन इसे हर परिवार आसानी से आत्मसात नही कर पाता है। बच्चो की खुशी में हमारी खुशी का आदर्श वाक्य अनमने मन से कहने की विवशता हो जाती है। ये स्थिति तो कमोबेश ठीक ही है महानगरों जहाँ देश का युवा वर्ग निजी संस्थानों में काम कर रहा है वहां विवाह एक अनावश्यक संस्था के रूप में प्रतिष्ठित हो रही है, एक दूसरे को "समझने" के नाम पर live in relation आ गया है। इस परंपरा में न्युनतम से लेकर अधिकतम समय की कोई परिभाषा नही है। इसके अलावा विवाह के परिणाम भी बेहतर नही आ पा रहे है। पुरुष का अहम और स्त्रियों की आर्थिक स्वालंबता के कारण बराबरी की अभिलाषा कहीं न कही विवाह की निरन्तरता में खलल डाल रही है। इसी कारण विवाह - विच्छेद की भी घटना बढ़ रही है। आज केरल हाइकोर्ट के एक आदेश में आज के दौर मेंwife को werden invited for ever{चिंता हमेशा के लिए आमंत्रित} को परिभाषित करने पर चिंता व्यक्त करते हुए wife (wise investment for ever) को परिभाषित किया है।केरल हाइकोर्ट ने पत्नी को use and throw मानने की उपभोक्ता संस्कृति की निंदा भी की है। आम परिवार को ये समझने की जरूरत है कि वे युवा पीढ़ी को ये समझ जरूर दे कि पश्चिम की संस्कृति में विवाह एक सौदेबाज़ी है, वहाँ संताने पहले होती है विवाह बाद में होता है, विवाह -विच्छेद तो मानो सर्दी खांसी है। हमारी संस्कृति में विवाह संस्कार है, परिवार की बुनियाद है ये समझ रहे/बने।
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