डॉक्टर साहब है क्या!
लेखक- संजय दुबे
तब के जमाने मे जब ग्रामीण इलाकों में शिक्षा का अभाव था तब निरक्षरता के चलते ग्रामीण परिवेश में रहने वाले अपनी सोंच और समझ से कठिन शब्दो का सरलीकरण कर लिया करते थे। शहरी क्षेत्रों में हिंदी भाषी चिकित्सक शब्द को अंग्रेजी भाषा में डॉक्टर बुलातेवह भी साहब के साथ। दुनियां में भगवान और माँ के बाद अगर किसी पर विश्वास होता है तो वह डॉक्टर पर होता है।
गांव में डॉक्टर, डागदर बाबू कहलाये जाते थे लेकिन टेलीविजन की आम पहुँच के साथ शिक्षा के प्रचार प्रसार ने डॉक्टर शब्द को गांव गांव पहुँचा दिया है। कल देश के स्वास्थ्य मंत्री जी ने अपने व्यक्तत्व मे बताया कि देश मे दस हज़ार व्यक्तियों के लिए एक एलोपैथिक डॉक्टर उपलब्ध है। चीन जिसकी आबादी हमारी देश के लगभग बराबरी पर है वहां दस हजार व्यक्तियों के लिए 22 डॉक्टर उपलब्ध है। यूनाइटेड किंगडम इस मामले में सबसे आगे है जहां 30 डॉक्टर है। दूसरे देशों से सीखने की आदत हमारी रही है सो अगर स्वास्थ्य के मामले में जितना जल्दी हो सके सीख ले लेने में कोई बुराई नही है।
भारत के संविधान में कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना प्रस्तावना में की गई है। सबको शिक्षा सबका स्वास्थ्य मूलमंत्र होता है।देश के लोगो का स्वास्थ्य अच्छा है तो बाकी विकास के काम स्वयमेव गतिशील होते है। भारत गांवों का देश कहा जाता है जहां 5.50 लाख गांव है। देश की 75 फीसदी आबादी इन्ही गांवों में बसती है। इनके स्वास्थ्य के लिए सरकारी कितनी गम्भीर है ये प्रश्न लाजमी है। क्योकि अगर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों की जनसंख्या के अनुपात में देखेंगे तो दस हजार के बजाय पच्चीस हजार का अनुपात आएगा।
देश मे चिकित्सा मानव सेवा की जगह "व्यवसाय" के रूप मे शुरू से ग्रामीण क्षेत्रों के स्थान पर शहरी क्षेत्रों में पनप रहा है। बुनियादी स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य सरकारी चिकित्सालय जो गांव में बना तो दिए जाते है लेकिन इनमें डॉक्टर उपलब्ध रहते है या नहीं रहते है ये सभी जानते है। हर राज्य में सरकारी डॉक्टर के पद रिक्त पड़े है।
चिकित्सा महाविद्यालय में MBBS कर लेने के बाद ग्रामीण क्षेत्र में सेवा देने की अनिवार्यता से भले ही आंशिक रूप से समस्या हल होते दिखती है लेकिन स्थाई हल नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों के चिकित्सालय के सरकारी डॉक्टर शहरी क्षेत्रों में निवास करते है और बकायदा निजी प्रेक्टिस भी करते है।इसके कारण सरकारी डॉक्टर तभी तक रहते है जब तक उनके जमने की बाध्यता रहती है।
आमतौर पर सरकारी सेवा के प्रति डॉक्टर्स की प्राथमिकता अंतिम रहती है वे सरकारी सेवा में होने वाले हस्तक्षेप को भलीभांति समझते है। व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के हस्तक्षेप के अलावा कागजी बोझ के चलते डॉक्टर सरकारी सेवा को अपना कैरियर नही बनाना चाहते है। इसके चलते न केवल ग्रामीण बल्कि अर्ध नगरीय क्षेत्र में चिकित्सालय डॉक्टर विहीन है।
निजी क्षेत्र के चिकित्सकों के द्वारा अपने व्यवसाय को पुख्ता करने के लिए इतनी बेहतरीन लाइजनिंग बना ली है कि आम आदमी को ये विश्वास होने लगा कि सरकारी चिकित्सालय में जाने का मतलब केवल परेशान ही होना है। राज्य के बजाय केंद्र शासित AIMS के प्रति भरोसा ज्यादा है। जो व्यक्ति थोड़ा भी आर्थिक सामर्थ्य रखता है वह अंतिम पायदान पर सरकारी चिकित्सालय पर भरोसा रखता है।
निजी चिकित्सालय में स्वास्थ्य सेवा का स्तर भले कैसा भी हो लेकिन वहां देखरेख की व्यवस्था बेहतर होती है। साफ सफाई स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य आवश्यकता है जिसके लिए निजी क्षेत्रों ने बाजी मारी है।
राज्य की सरकारों ने अनेक मल्टी फैसिलिटीज चिकित्सालयो को मान्यता देकर अपने राज्य के नागरिकों को गम्भीर बीमारियों के देखरेख की व्यवस्था कर विकल्प खोजा है इसके चलते निजी चिकित्सा महाविद्यालय भी देश मे बढ़ते जा रहे है। निजी चिकित्सालय भी बढ़ते जा रहे है।
सरकारों को जिस बात पर ख्याल रखना अनिवार्य है वह है- चिकित्सा शुल्क। आमतौर पर शिकायत है कि निजी चिकित्सालयो में स्वास्थ्य सेवा का भुगतान बहुत ही ज्यादा करना पड़ता है।जिस प्रकार सरकार ने स्वास्थ्य बीमा के तहत बीमारियों के निराकरण के लिए भुगतान राशि निर्धारित किया है यदि इसी में श्रेणीवार गम्भीर बीमारियों का भुगतान होने की व्यवस्था हो जाये तो बहुत हद तक अधिक भुगतान की समस्या हल हो सकती है।
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