सर्कस, हॉ बाबू, ये सर्कस है..

लेखक - संजय दुबे

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99 साल की आयु में जैमिनी सर्कस के कर्ता धर्ता जैमिनी शंकरन का निधन हो गया। एक शो मैंन जो जिंदगी भर तंबू के भीतर के रोमांच को सबके सामने लाने की कोशिश करता रहा वह प्यार की दुनियां में पहुँच गया।

 देश मे बचे खुचे सर्कस में से जैमिनी सर्कस हमारे बचपन का एक ऐसा आकर्षण था जिसे गर्मियों की छुट्टियों में इंतज़ार रहता था। सर्कस इंसान औऱ जानवरो के रोमांचक प्रदर्शन का जमावड़ा हुआ करता था। शहर के बड़े मैदान में जब ट्रकों में सर्कस के सामान आता तो तंबू लगने से लेकर सर्कस के शुरू होते तक गाहे बगाहे पूरी प्रक्रिया को देखने का भी आकर्षण होता था। शेर, भालू को पिंजड़े में देखना अलग ही रोमांच होता था वह भी मुफ्त में।

 विशाल तंबू में बीच मे एक घेरा हुआ करता था जिसके चारों तरफ लोहे की कुर्सियां लगा दी जाती थी। पीछे लकड़ी के पैवेलियन हुआ करता था जिसकी टिकट कम हुआ करती थी। आमतौर पर शाम औऱ रात के शो हुआ करते थे। रविवार को दोपहर का भी शो होता था।समय लगभग 3 घण्टे का।शहर में रात को सर्कस की सर्च लाइट देखने छतों पर जाना सर्कस की उपलब्धि हुआ करती थी।

  जानवरों में शेर, हाथी, भालू,घोड़ा, बंदर, कुत्ता, तोता सहित इंसानों के हैरतअंगेज कारनामो के प्रदर्शन का नाम था सर्कस। जिमनास्टिक , के दीगर प्रदर्शन के अलावा हवाई झूले से एक तरफ से दूसरे तरफ आना जाना अंतिम प्रदर्शन हुआ करता था। सांसे रुक जाती थी जब एकात जिम्नास्ट दूसरे का हाथ पकड़ता था। इसी प्रदर्शन में हास्य के लिए किसी जोकर का पजामा भी पकड़ कर खींचा जाता था। नीचे जाली लगी रहती थी संभावित दुर्घटना को रोकने के लिए हास्य से याद आया कि जोकर भी हुआ करते थे । विचित्र से वेशभूषा औऱ श्रृंगार में। उनको देखकर ही हंसी आती थी। एक फटे बेट से मारपीट करते।

 जानवरो के प्रदर्शन में शेर जब आते तो बचपन का डर भी सामने आता था। रिंग मास्टर चाबुक फटकारता तो शेर अनुशासित रूप से टेबल पर बैठ जाते। एक युवती भी इस खेल में शामिल होती तो औऱ भी रोमांच जागता। हाथी सर्कस की जान हुआ करते थे। कालांतर में विदेशी जिमनास्ट के अलावा एक नए जानवर के रूप में हिप्पोपोटेमस ( दरियाई घोड़ा) के शामिल होने से उत्सुकता औऱ बढ़ी। अपने बचपन के बाद अपने बच्चों को भी सर्कस दिखाने का सौभाग्य रहा लेकिन जानवरो के साथ अत्याचार और उनके प्राकृतिक जीवन को प्रभावित करने के कानून ने सर्कस के आधे रोमांच को कम कर दिया। रही सही कसर टेलीविजन औऱ मोबाइल ने पूरी कर दी। अब भी सर्कस लगते है लेकिन वो बात कहां?

  सर्कस की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मेरा नाम जोकर औऱ हाथी मेरे साथी जैसी फिल्में भी बनी।


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