आनंद मोहन सिंह के बहाने

लेखक - संजय दुबे

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राजनीति में लाभ देखे जाते है - ये जगजाहिर नियम है। बाहुबल चुनाव की अनिवार्य आवश्यकता है क्योंकि चुनाव में झंडा कोई शरीफ आदमी तो उठाएगा नहीं, रैली में जिंदाबाद जिंदाबाद के नारे लगाने के लिए जो युवा चाहिए उस युवा का जुगाड़ आम आदमी के बस की बात नही है।ऐसे काम के लिए भाड़े के आदमी की जरूरत कैसे लोग पूरा करते है? दूर जाने की जरूरत नही है। अतीक अहमद, अशरफ, औऱ अब आनंद मोहन सिंह उदाहरण के रूप में सामने है।

राजनीति के बिसात पर राजनेताओं को गुंडे रखने -पालने की विवशता है क्योंकि 95 प्रतिशत लोग अपनी आंख 5 साल में खोलते है और अपने मतदान कर्तव्य का निर्वाह कर भीड़ में गुम हो जाते है। अगले 5 साल में जीतने भी आयोजन होते है उनके कर्ता को देख ले तो ये पता चल जाता है साधारण आदमी तो ऐसे हिमाकत नही कर सकता है।

 बिहार और उत्तर प्रदेश अपराध का गढ़ रहा है। दोनो राज्यो की रियासत में बीते 50 साल में सत्तारूढ़ हुए राजनैतिक दलों नेअपने लाभ के लिए गैंगस्टर लोगो को पनाह दी है। यही लोग आगे चलकर नजायज ढंग से अवैध कब्जा, निर्माण और कमीशन के खेल में उतरते है। राजनैतिक संरक्षण में इनकी उम्मीदे जवां होती है और देर सबेर किसी मंडल/ आयोग निगम के पदाधिकारी बनने के बाद विधायक, सांसद का भी सफर तय करते है। जातिवाद के समीकरण के चलते स्थान विशेष में गुंडागर्दी को मुहर लगती है।

 एक जमाने मे तो बिहार में निजसेना हुआ करती थी बाहुबलियों की। आगे चलकर यही लोग सफेदपोश हो गए। अवैध कामो को वैध रूप देने के लिए कानून बनाने और अमल करने वालो के संरक्षण में अपहरण, बलात्कार, हत्या जैसे कार्यो की प्रसिद्धि ऐसी फैली हुई है कि किसी भी आदमी से पूछ लो पता चल जाएगा कि कौन दादागिरी कर रहा है और किसका संरक्षण है। दुख की बात तो ये भी है कि इस कार्य मे जन धन की सुरक्षा करने वाली संस्था- पुलिस के कुछ अधिकारी भी शामिल हो जाते है।

    बिहार मेंआनंद मोहन सिंह पर गोपाल गंज के आईएएस अधिकारी जी कृष्णेया के हत्या का आरोप लगा था। निचली अदालत में मृत्युदंड मिला था। उच्च न्यायालय ने इस सजा को उम्रकैद में बदला था। जैल के अपने नियम कानून है जिसमे साल में दिनों की रियायत मिलती है और सम्पूर्ण सज़ा में ये दिन घट कर सज़ा अवधि का निर्धारण हो जाता है। ये अवधि कुल सज़ा से घटा दी जाती है और सज़ा प्राप्तकर्ता समय से पहले छूट जाते है। इसके अलावा शासन को भी अधिकार प्राप्त है कि वह भी निर्धारण करती हैं कि किस कैदी की सज़ा और कम करें।

बवाल यही से शुरू होता है जब शासन ऐसे अधिकार का दुरुपयोग अपने हित के लिए करती है। बिहार में कैदियों को छोड़ने के नियम में शासकीय सेवको के विरुद्ध अपराधियो के लिए छूट की व्यवस्था नही थी। 10 अप्रैल 2023 को ऐसी व्यवस्था अधिसूचना के माध्यम से की गई और लाभ आनंद मोहन सिंह को मिल गया अन्यथा उनको नियम से केवल 120 दिन की छूट मिलती। अन्य मामलों में 13 साल 8 महीने की सज़ा पूरे होने पर रिहाई की व्यवस्था होती है। अदालतों में ये भी व्यवस्था है कि उम्रकैद की सज़ा का मतलब उम्र भर याने मृत्यु जेल परिसर में ही होना है। 

  बिहार में 1994 से लेकर 2005 तक बाहुबलियों की तूती बोलती थी लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है। बड़े बड़े आपराधिक धंधे बिहार से संचालित होते थे वे समाप्ति के कगार पर थे। नीतीश कुमार ने काफी हद तक अपराध को नियंत्रित किया था इसमे कोई शक नही है लेकिन अब उनके राजनैतिक संबंध में साथी बदले तो समीकरण औऱ समझौते भी बदले है।

            जी कृष्णेया की हत्या , सरेआम की गई थी। ये कानून के साथ सार्वजनिक खिलवाड़ था। कम से कम आनंद मोहन सिंह को छूट का लाभ नही दिया जाना था। इससे बाहुबलियों को बल मिलेगा और शासकीय सेवको का आत्मबल गिरेगा। इस घटनाक्रम में जनहित याचिका लग चुकी है। परिणाम आना शेष है लेकिन राजनीति केअपने नफा के बैरोमीटर होते है जिसमे पारे की चढ़ाई देखी जाती है।


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