पैर छूना सम्मान का चर्मोत्कर्ष
लेखक - संजय दुबे
भारतीय संस्कृति में वैदिक युग से लेकर रामायण और महाभारत महाग्रन्थ काल मे गुरु, परिवार औऱ समाज के उम्र में बड़े व्यक्तियों के पैर छू कर सम्मान देने की परंपरा का निर्वाह आज भी हो रहा है। एयरपोर्ट जिसे आर्थिक रूप से समृद्ध लोगो का जमावड़ा माना जाता है आप सार्वजनिक रूप से इस परम्परा को निर्वाहित होते देख सुकून पा सकते है। कबीर दास ने इन पंक्तियों में कि -" गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काकू लागू पाय, बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताय" में किसके पैर पहले छुए जाने है की महत्ता बताई है। रामायण में 14 साल के वनवास की मांग करने वाली कैकेयी के पैर छूकर उनके बड़े होने का सम्मान दिया था। महाभारत काल में भीष्म पितामह ने दुर्योधन को बड़ो के पैर छूने पर आशीर्वाद मिलने का गुण बताया था। हाल ही में दो घटनाएं ऐसी घटी जिसे सोशल मीडिया में सम्मान संस्कृति से जोड़ कर बड़प्पन के रूप में दिखाया गया। पहला था पापुआवन्यू गिनी के राष्ट्र प्रमुख जेम्स मरापे का भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का सार्वजनिक रूप से पैर छूकर सम्मान देना और दूसरा आईपीएल फाइनल में चेन्नई सुपरकिंग्स के विजेता होने के बाद रविन्द्र जडेजा की पत्नी रिवाबा जडेजा( भारतीय जनता पार्टी की विधायक) जडेजा द्वारा सार्वजनिक रूप से रविंद्र जडेजा का पैर छूना। आम जनमानस में दोनो घटनाओं ने बड़ो के सम्मान को लेकर इन पर टिप्पणी की।
देश के आबोहवा में संस्कृति, सम्प्रदाय, धर्म, जाति को लेकर त्वरित टिप्पणी,तुलना, बड़प्पन आदि का फैशन ओर पैशन है। जो बात सकारात्मक होती दिखती है वह नकारात्मक बातों की तुलना में कम वाइरल होती है।तुर्रा तो ये भी होता है कि नकारात्मक ऊर्जा से भरे लोग भी अच्छाई में बुराई खोज लेते है।
हमारा देश परंपरा का देश है।पश्चिम से पलट।संस्कार हमारी धरोहर है। ईश्वर के हर रूप चाहे वह जल हो या धरा हो, पेड हो या पत्थर हो उनके पैर छूने की परंपरा रही है। ऐसे ही संस्कार में ज्ञानी व्यक्ति सहित बड़े बुजुर्गों के चाहे वे पुरुष हो या महिला, उनको सम्मानित करने की दृष्टि से शीश नवा कर पैर छूने की परंपरा है। रिश्ते में पैर छूने के परंपरा में अनेक स्थानों में बेटी से पैर छुवाने के बजाय बेटी को शक्ति पर्याय देवी मानकर उसके पैर छूने की परंपरा है। छत्तीसगढ़ को भगवान राम का ननिहाल माना जाता है।यहां भांजे से मामा ( रिश्ते में बड़ा) पैर छुवाने के बजाय भांजे का पैर छूते है।
पैर छूना निःस्वार्थ हो तो आशीर्वाद मिलता है ये विधान है। पैर छूने में स्वार्थ आ जाये तो आशीर्वाद के लिए प्रतीक्षा करने की मजबूरी भी आ जाती है। व्यवस्थापिका औऱ कार्यपालिका में "पाय लागू" संस्कृति, खुद को सर्वाधिक समर्पित दिखाने की दिखावटी परंपरा है। राजनीति में आगे बढ़ने के लिए अचूक अस्त्र। राजनीति के कुशाग्र लोग इस अपेक्षा से ग्रसित होते है कि सार्वजनिक स्थानों में उनके पैर ज्यादा लोग छुए। जो लोग व्यवस्थापिका औऱ कार्यपालिका क्षेत्र में सवाभिमानी होकर रहना चाहते है उनको ऐसे लोग जो कार्य के बजाय अपने पाय लागू संस्कृति के बल पर चहेते बन जाते है उनके कारण अनेक स्थानों पर कोप भाजन का सामना करना पड़ता है।
वक़्त बदलता है तो तरीके भी बदलते है।अब के समय मे कुछ लोग पैर छूने के संस्कार से बचते नज़र आ रहे है। चरण स्पर्श कहना, घुटना छूना, पैर छूने के विकल्प बन रहे है। इसे अपूर्ण मन की अधूरा सम्मान मान सकते है।
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