"आदिपुरुष" फिल्म के बहाने
लेखक - संजय दुबे
भारतीय जनमानस के रग रग में फिल्में दौड़ती है। मनोरंजन के साथ साथ क्षणिक रूप से मनोभाव को बदलने के लिए फिल्में जानी जाती है।ये कहना बेमानी होगा कि फिल्में हमारे सामूहिक विचारधारा को बदलने का सामर्थ्य रखती है।ऐसा होता तो "बुराई पर अच्छाई की जीत" के साथ खत्म होने वाली फिल्मों के चलते समाज मे सद्भाव कूट कूट के भर चुका होता।
भारतीय फिल्मों के युग की शुरुआत धार्मिकता के आधार पर हुई थी।"राजा हरिश्चंद्र" पहली मूक फिल्म थी। धार्मिक फिल्मों का दौर चलता रहा।कालांतर में सामाजिक विषयों पर फिल्में बनी।अब जो मन चाहे विषयो पर फिल्में बन रही है। जो भी हो आज भी जब मोबाइल थियेटर हर हाथों में है तब भी फिल्में है।दर्शक है तो फिल्में जिंदा रहेगी विशाल पर्दे से लेकर मोबाइल के स्क्रीन तक सिमटने के बावजूद फिल्में मनोरंजन करेगी। क्षणिक वैचारिक क्रांति भी लाएगी। बाद में जिस ढर्रे पर हम सब चल रहे है, उसी में चलेंगे।
आज एक धार्मिक फिल्म "आदिपुरुष" का आगमन हो रहा है। ये फिल्म राम की जीवन यात्रा विषयक फिल्म है याने पीछे रामायण है। राम, मनुष्य और ईश्वर दोनो रूप में आम लोगो के बीच विद्यमान है। हिन्दू धर्म मे राम और कृष्ण ही व्यक्ति के रूप में स्वीकार्य किये गए है। उनके कर्म चाहे परिवार के लिये हो या समाज के लिए हो या राज्य के लिए हो , उन्हें व्यक्ति से ईश्वर के रूप में मान्यता दिलाई है।
आदिपुरुष राम के बारे में वाल्मीकि, तुलसीदास से लेकर अनेको ने अपने समझ के अनुसार व्याख्या की है। ऐसा देश जहां उन्नीसवी शताब्दी में साक्षरता न्यूनतम थी तब राम, नवधा रामायण के रूप में जनश्रुत हुआ करते थे।साक्षरता के दौर में पढ़े गए।नाटकों में मंचित हुए रामलीला के रूप में । फिल्मों में अवतरित हुए।दूरदर्शन के युग आया तो धारावाहिक भी हो गए।
राजनीति में धर्म का अवतरण हुआ तो राम पर राजनीति भी हो रही है। तेरे राम -मेरे राम के द्वंद में हर के राम राम है। किसी के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम राम तो किसी के लिए कौशल्या के राम। राम ही राम है। अयोध्या के भी राम है जो आज़ादी के बाद कभी ताले के भीतर तो कभी ताले के बाहर, कभी टेंट में औऱ अब भव्यता से स्थापित होने की ओर अग्रसर होने वाले भी राम है। ऐसे में आदिपुरुष का आना भी हवा में राम का घुलना ही है।
आदिपुरुष का राम कैसा होगा? ये उत्सुकता का विषय है। आम जनमानस में राम शांतमना है, विवेकी है, सूझ बूझ वाले है। कुशल राजनीतिज्ञ है। समय पर उनमें क्रोध का भी समावेश है । समुद्र द्वारा मार्ग न देने पर वे कोपित भी होते है। कुशल राजा रावण से मृत्यु के समय राजकाज के गुर सीखने की ललक भी है। क्या ये सब आदिपुरुष में होगा?
रामानंद सागर ने रामायण में राम को चरितार्थ किया तो देश मे अघोषित कर्फ्यू लगा। आदिपुरुष , की सफलता की दृष्टि से हज़ार करोड़ के क्लब में जायेगा? अगर ऐसा होता है तो राम के चरित्र का शानदार व्यवसाईकरण माना जायेगा।
अब प्रश्न ये कि इतने के बावजूद समाज मे राम से सीखने का प्रश्न "यक्ष प्रश्न" ही है।दूरदर्शन में रामायण के प्रसारण के काल मे अशोक चक्रधर की लिख कविता की कुछ पंक्तियां मेरे अंतर्मन को छूती है,
एक उजाला है
लेकिन ए चेहरे प्यारो
इस राजसी असंभव आदर्श के
कोरे उजाले से
क्या होने वाला है
धन्य भाव से
धान्य नही होना है
रामराज्य का यही तो रोना है
संतोषी प्रतीक्षा में
कुछ बदलता तो नहीं है
इन सपनो के भरोसे
देश चलता तो नही है
अतीत के व्यतीत से
झांकने के लिए
बात भले राम राज्य की हो
लेकिन जरूरी है आज हो
अंत मे मेरी बात
मैं आदिपुरुष नहीं देखूंगा
मैं आदिपुरुष को देखते
चेहरों को देखूंगा
औऱ उन चेहरों पर अपनी
नज़रे सेकूंगा
मुस्कानों के क्रम में
आँसू निकलते देखूंगा
चाचा को सिर हिलाते
मौसी को रोते देखूंगा
सब कौम सब चेहरों
पर आते भावों को देखूंगा
मैं आदिपुरुष नही देखूंगा
मैं आदिपुरुष देखते चेहरे को देखूंगा
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