अब उप- मुख्यमंत्री टी एस सिंहदेव
लेखक - संजय दुबे
भारत के संविधान में केंद्र- राज्य की परिकल्पना निर्धारित है। राष्ट्रपति और राज्यपाल के कार्य के सहयोग के लिए क्रमशः प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री पद का उल्लेख है। उप- प्रधानमंत्री अथवा उप मुख्यमंत्री पद का उल्लेख नहीं है। राजनीति में संवैधानिक व्यवस्था से परे भी अपनी अलग व्यवस्था बनाने का शगल है। इसे संतुलन का सिद्धांत कहा जाता है। दल के भीतर चाहे क्षेत्रीय संतुलन की बात हो या जातीय संतुलन या बाहुबल का संतुलन या फिर व्यक्तित्व का संतुलन हो, बराबर करना पड़ता है। इसे भीतर ही भीतर पनप सकने वाले असंतोष को ढाँकने की सफल कोशिश भी कहा जा सकता है।
सत्ता में न आने पर विपक्ष को तो जनमत के जनादेश को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है। कठनाई सत्ता पक्ष की होती है। अगर बहु से ज्यादा मत से सरकार आ जाये तो असंतुष्ट भी पुरौनी में मिल जाते है। छत्तीसगढ़ में 2023 के आसन्न विधानसभा चुनाव के आचार सहिंता लगने के लगभग 150 या पांच माह पहले अघोषित समझौते के तहत कथित ढाई- ढाई साल फार्मूले के पालन न होने पर स्वयं नाराज़ होते और मान जाने वाले टी एस सिंहदेव को अंततः उप- मुख्यमंत्री बना कर छत्तीसगढ़ में भी उप मुख्यमंत्री संस्कृति का श्री गणेश कर दिया गया है। निश्चित रूप से कांग्रेस के नव निर्वाचित अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने ये फार्मूला अपना कर शक्ति संतुलन के साथ साथ असंतोष को भी खत्म करने की सफल कोशिश की है। ये भी माना जा सकता है टी एस सिंहदेव को ये पद मिला नही है बल्कि उनके द्वारा लिया गया है।
देश के11राज्यो में उप मुख्यमंत्री कार्यरत है ही। छत्तीसगढ़ 12वां राज्य है। आंध्र प्रदेश में तो उपमुख्यमंत्री पद रेवड़ी के समान 5 लोगो को बांटी गई है। नागालैंड औऱ मेघालय जैसे अति छोटे राज्यो में 2- 2 उपमुख्यमंत्री है। उत्तर प्रदेश के विधानसभा सदस्य संख्या की तुलना में 2 उपमुख्यमंत्री होना समझ मे भी आता है लेकिन नागालैंड औऱ मेघालय? समझ सकते है कि बहुदलीय समझौते का क्या फर्क पड़ता है।
उपमुख्यमंत्री पद कोई संवैधानिक पद नहीं है। भारत के संविधान में अनुच्छेद 163, 164 में राज्यो के लिये केवल मुख्यमंत्री पद का उल्लेख है। संविधान के हिसाब से जो पद उल्लिखित नहीं है उसका संवैधानिक मूल्य भी नहीं है। केवल राजनीति का सृजित पद है जो तुष्टिकरण का पर्याय है। देश मे तीन प्रकार के विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र है ।सामान्य, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति। उपमुख्यमंत्री के चयन की सर्वोच्च प्रक्रिया में इसी फार्मूले को स्वीकार किया जाता है। इसके बाद क्षेत्रीय मुद्दा दम भरता है। दो या तीन दल मिलकर सरकार बनाये तो भी उपमुख्यमंत्री जरूरी ही हो जाते है। महाराष्ट्र उदाहरण है। केवल बाहर से मदद करने का सार्वजनिक उद्घोषणा करने वाले देवेंद्र फडणवीस एक फ़ोन पर वैसे ही उपमुख्यमंत्री बन गए जैसे डी. शिवकुमार।
उपमुख्यमंत्री पद सत्ता में संतुलन का सफल आजमाया तरीका है। उपमुख्यमंत्री ही नहीं उप प्रधानमंत्री भी ऐसी ही व्यवस्था रही है औऱ 6 महानुभाव इस रेवड़ी का बखूबी सदुपयोग कर चुके है।
देश मे आज़ादी से पहले ये पद सृजित हो चुका था। बिहार पहला राज्य बना जहां 1939 मे अनुराग नारायण सिन्हा पहले पहल उपमुख्यमंत्री बने। स्वतंत्र भारत मे 1959 में आंध्र प्रदेश पहला राज्य बना और कोंडा वेंकट रंगा रेड्डी पहले व्यक्ति बने जो उपमुख्यमंत्री बने। इसके बाद से उपमुख्यमंत्री पद पॉलिटिकल इंजीनियरिंग का समीकरण बन गया। एक दलीय व्यवस्था जिस जिस राज्य चरमराई वहां उप मुख्यमंत्री बने। इसके बाद जाति और शक्ति संतुलन के लिए उप मुख्यमंत्री बने। कर्नाटक शक्ति संतुलन का उदाहरण है। कर्नाटक में एस एम कृष्णा पहले उपमुख्यमंत्री 1989 में बने। कर्नाटक में अब तक 10 उपमुख्यमंत्री बन चुके है। वर्तमान मुख्यमंत्री सिद्धारमैया दो बार उपमुख्यमंत्री रहे है। पर दल जनता दल था। यदुररप्पा भी कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री रह चुके है। भाजपा से 5, कांग्रेस और जनता दल से 2-2 औऱ जनता दल सेकुलर से एक उपमुख्यमंत्री कर्नाटक को मिले है।
एस एम कृष्णा, सिद्धारमैया औऱ यदुररप्पा कालांतर में मुख्यमंत्री भी बने। कर्नाटक में तो घोषित रूप से ढाई ढाई साल के मुख्यमंत्री फार्मूले में डी शिवकुमार आधे कार्यकाल के उप मुख्यमंत्री बने है और ढाई साल बाद वे निश्चित रूप से मुख्यमंत्री होंगे।छत्तीसगढ़ में 5 साल का समय जा चुका है लेकिन वर्तमान समीकरण ये संदेश अवश्य देते दिख रहा है कि 2023 में कांग्रेस सत्ता में आती है तो अगली बार चेहरे पर चर्चा जरूर होगी। माना जा सकता है अब टी एस सिंहदेव को बाबा नही बनाया जा सकता है।
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