गोविंद दुबे से गोविंद "मकरंद" दुबे औऱ गोविंद मकरंद दुबे से पंडित गोविंद मकरंद दुबे बनने की यात्रा

लेखक - संजय दुबे

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खाद्य विभाग, अपने आप मे ऐसा विभाग है जिसके यश अपयश की चर्चा गाहे बेगाहे होती रही है और होते रहेगी। काजल की कोठरी में काले होने का अवधारणा सतत प्रक्रिया रही है।

इस काजल की कोठरी सेम कई हीरे भी निकले।जिनके कार्यो की गूंज प्रदेश की सीमा लांघ कर देश व्यापी भी हुई। ऐसे ही एक शख्सियत आज के समय मे पंडित गोविंद मकरंद दुबे है। इनकी गोविंद दुबे से पंडित गोविंद मकरंद दुबे बनने की यात्रा में मेरा जुड़ाव 15 साल बाद हुआ। जहां तक मेरी जानकारी है कि 1974 बेच के खाद्य निरीक्षको में गोविंद मकरंद दुबे भी अन्य निरीक्षकों के समान विभाग में आये थे। मकरंद शब्द उनके नवभारत जबलपुर में कार्य के दौरान जुड़ा औऱ आज तक जुड़ा हुआ है।तब की पत्रकारिता में एक गुण हुआ करता था - निर्भीकता का। किसे अच्छा लगेगा या नही लगेगा ये बात बेमानी थी। पत्रकारिता से नेतृत्व का भी गुण जन्म लेता था।

 सरकारी सेवा में गोविंद मकरंद दुबे की कर्मभूमि नर्मदा के पहाड़ी उतार चढ़ाव के भेड़ाघाट के पास जबलपुर ही ज्यादातर रही। अल्प काल के लिए दुर्ग भी आये। विभाग में संघ के सक्रियता के लिए वे बीड़ा उठाने वालो में रहे और बेख़ौफ़ होकर कर्मचारियों की सामूहिक समस्याओ के निराकरण के लिए उच्च अधिकारियों से जूझते रहे। खाद्य और नापतौल विभाग के संविलियन का अदभुत कार्य उनकी बेमिसाल उपलब्धि थी जो विभागीय दांवपेंच में उलझ गईं। दो राज्यो के विभाजन के चलते ये कार्य अपूर्ण रहा लेकिन उपभोक्ता संरक्षण की दिशा में ये दूरगामी सोच थी।

गोविंद मकरंद दुबे की शिक्षा में विधि का भी क्षेत्र रहा। लेखन की परिपक्वता ने उन्हें विभाग के नियम आदेश के संकलन के साथ उन्हें पुस्तक के रूप में लाने का कार्य भी सराहनीय रहा। सरकार के कार्य से मुक्त होने के बाद अधिवक्ता के रूप में स्थापित हुए। 

 ब्राह्मण के लिए एक बात कही सुनी जाती है कि युग के शुरुआत से लेकर अब तक ज्ञान के विस्तार का कार्य उनकी जातीय विवशता रही है अन्य की तुलना में। यही विवशता  

गोविंद मकरंद दुबे को पंडित गोविंद मकरंद दुबे बना ले गयी

 गीता, हिन्दू धर्म और संस्कृति की व्यवहारिकऔऱ आध्यत्मिक वाहक है। कर्म के प्रति निष्ठा और धर्म के साध्य के लिए युद्ध करने का ज्ञान के अलावा सांसारिक सत्य के लिए न जाने कितनों ने गीता रहस्य को कलमबंद किया है। आध्यात्मिक लेखन के क्षेत्र में पंडित गोविंद मकरंद दुबे जी का पांडित्य उनके लेखन में दिखेगा। गीता के 18 अध्याय के सार को सरल भाषा मे दोहा के रूप में प्रकाट्य करना आरंभ या प्रस्तावना ही है। विस्तृत रूप से जब प्रकाशित पुस्तक हाथ में होगी तो निश्चित रूप से जिस प्रकार वाल्मीकि के संस्कृत भाषा मे लिखी रामायण का तुलसीदास ने अवधि में रामचरित मानस में सरलीकरण किया है, समतुल्य ही पाएंगे। 5 वर्ष का समय किसी एक विषय पर लेखन ही बताता है कि श्रम कितना लगा होगा। हम सभी की शुभकामनाएं पंडित गोविंद मकरंद दुबे जी के लिए है


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