9 अगस्त 1942 नहीं 9 अगस्त 1925
लेखक - संजय दुबे
यूं तो कहा जाता है कि अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन 9 अगस्त 1942 को शुरू हुआ था लेकिन सच ये कि अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए इसी 9 अगस्त 1925 को शुरुवात हो गयी थी। काकोरी में जो घटना घटी उससे अंग्रेज हुकूमत की चुले हिल चुकी थी, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि काकोरी कांड के बाद देश के हर बड़े राज्य में अंग्रेजो ने क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिए एक्शन मोड़ में आ गयी थी। 40 व्यक्तियों को पकड़ा गया जिनमे सर्वाधिक चर्चित व्यक्ति चन्द्र शेखर आज़ाद भर नही थे । 4 शख्सियत- पं राम प्रसाद "बिस्मिल", अशफुल्लाह, राजेन्द्र प्रसाद लाहिड़ी,औऱ रोशन सिंह ऐसी भी थी जिन्होने अंग्रेजो के किसी भी शर्त के साथ समझौता नहीं किया। इन सबने देश को राह दिखाई कि अगर अंग्रेजो से मुक्ति पाना है तो उनके मन मे डर बनाना होगा। पं राम प्रसाद बिस्मिल तो अपने तरीके के अलग ही योद्धा थे। पहले तो उन्होंने अंग्रेज समर्थक अमीरों को लूट कर धनराशि जोड़ने की कोशिश की लेकिन इस क्रम में एक व्यक्ति मारा गया तो विचार ये किया कि अंग्रेजों को ही लूट कर उनकी खिलाफत किया जाए।
9 अगस्त 1925 को 8 डाउन सराहनपुर से लखनऊ पैसेंजर रवाना हुई तो इस ट्रेन में सरकारी खजाना भी रवाना हुआ था। काकोरी स्टेशन के थोड़ा पहले आज़ादी के मतवालों ने ट्रेन रोक कर सरकारी खजाने पर हमला कर दिया। खजाना एक तिजौरी में था उसका ताला तोड़ दिया गया। दो चादरों में पैसा इकट्ठा किया गया और मौके से निकल लिए। ये घटना अंग्रेजो को सकते में ला दिया। आनन फानन गुप्तचर एजेंसी चौकस हो गयी । राम प्रसाद बिस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह, औऱ अशफाकउल्ला पकड़े गए। क्यो? ये भी जानना जरूरी है, एक भेदिया था गद्दार बनारसी लाल, इस व्यक्ति ने सारी सूचनाएं की भागीदारी की।
बहरहाल, ट्रायल चला, फांसी की सज़ा हुई। अंग्रेजो की तरफ से पंडित जगतनारायण मुल्ला ने पैरवी की। जगतनारायण मुल्ला ने रामप्रसाद बिस्मिल के लिए आपत्तिजनक शब्द का उपयोग किया तो बिस्मिल ने बोल दिया "पलट देते है हम मौजे हवादिस अपनी जुर्रत से,कि हमने आंधियों में भी अक्सर चिराग जलाए है।"
रामप्रसाद बिस्मिल अपना केस खुद लड़ रहे थे, उनके क़ानूनी ज्ञान पर जज को भी आश्चर्य हो रहा था। उनको खुद के केस लड़ने पर रोक लगाकर सरकारी वकील दिया गया।जिसका परिणाम ये निकला कि पैरवी कमजोर पड़ गयी।
रामप्रसाद बिस्मिल ,अशफाकउल्ला औऱ रोशन सिंह को फांसी की सज़ा दी गईं। अंग्रेज़ो ने माफी मांगने पर सज़ा कम कर देने का दांव चला लेकिन" सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुवे कातिल में है" गीत के रचनाकार रामप्रसाद बिस्मिल ने साफ इंकार कर दिया। इन अमर क्रांतिकारियों को फांसी पर चढ़ाने के लिए अंग्रेजो ने तब के जमाने मे 10 लाख रुपये खर्च किये थे।
काकोरी के महानायक को 30 वर्ष की आयु में 17 दिसम्बर 1927 को फांसी दे दी गयी। उनके अंतिम संस्कार में डेढ़ लाख लोग शामिल हुए थे जो ये सिद्ध करता है कि 9 अगस्त 1942 नही बल्कि 9 अगस्त 1925 को जो आग लगाई गई थी उसका नतीजा था 1947 में देश आज़ाद हुआ।
रामप्रसाद बिस्मिल अगर गाया करते थे
वक्त आने पर बता देंगे तुझे के आसमान
हम अभी से क्या बताये क्या हमारे दिल मे है
खेंच कर लाई है सबको कत्ल होने की उम्मीद
आशिकों का आज जमघट कूच ए कातिल में है।
ऐसे क्रांतिकारियों को देश की सत्ताओं ने जानबूझ कर अनदेखा किया और जिस सम्मान के हकदार थे उससे वंचित रखा।इसी कारण देश के इतिहास को फिर से सुधारने की जरूरत है।
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