आज़ादी के मेरे मायने

लेखक- संजय दुबे

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सरकारी सेवा में रहते रहते भारत के संविधान के अनेक हिस्सो को पढ़ने का अवसर मिलता रहा । ये भी हमेशा विश्वास रहा कि व्यक्ति को देश के संविधान के प्रति गहरी निष्ठा रखनी चाहिए । सीधे साधे देशवासियों को संविधान से ज्यादा मतलंब नही होता है। वे ये भी मानते है कि संवैधानिक व्यवस्था से उन्हें क्या लेना देना है। जन्म लिए हर व्यक्ति को मरना ही है तो वे मरने के लिए खाते है, पीते है, जागते है सोते है और मर भी जाते है। लेकिन बहुत से व्यक्ति मेरे जैसे है जिनका द्रष्टिकोण जुदा है। वे सजग है, सतर्क है लेकिन अपने विरुद्ध बनते षड्यंत्र से अनभिज्ञ है। जब कुचक्र में फंसते है तो सिवाय संवैधानिक उपचार के अलावा कोई विकल्प शेष नही बचता है। हर व्यक्ति की समझ का एक स्तर होता है।कुछ लोग कुत्सित मानसिकता से भरे होते है जिनके मस्तिष्क में नकारात्मकता की जड़े इतनी गहरी होती है कि वे खाद पानी न भी डाले तो अमरबेल आपादमस्तक अपना घर बना लेती है। ऐसे लोग आपके प्रति एक सोंच निर्मित करते है और उसी सोंच को अभिव्यक्त करते है। इनके कारण अनेक व्यक्ति ऐसे कुचक्र में फंसते है और आगे भी फसेंगे क्योकि बिच्छु को कितनी बार पानी से निकालने की कोशिश करो वो कटेगा ही। ऐसे लोगो से निपटने के लिए आपको संवैधानिक अधिकार की ही मदद लेनी पड़ती है और आगे जरूरत भी पड़ेगी।

 आज आज़ादी का दिन है इस आज़ादी में आपको दो महत्वपूर्ण अधिकार याद दिलाने का भी अवसर मेरे पास है।ये दो महत्वपूर्ण अधिकार है:-1अभिव्यक्ति की आज़ादी 2 संवैधानिक उपचार का अधिकार। अभिव्यक्ति के अनेक माध्यम है जिनमे सबसे खतरनाक माध्यम है लेखन की अभिव्यक्ति, जब से इलेक्ट्रॉनिक सोशल मीडिया ने हमारे जीवन मे प्रवेश किया है, इसी के साथ प्रतिक्रियात्मक समाज ने भी जन्म लिया है। कॉपी पेस्ट एडिट की सुविधा ने किसी भी व्यक्ति को जो लेखन करता है उसे डेंजर जोन में डाला हुआ है। क्या सही है क्या नही है इसका परीक्षण नही होता है।सीधे कार्यवाही। आपका पक्ष केवल न्यायालय सुनेगा। ये कहने वाले भी मिल जाएंगे सही होंगे तो न्यायालय न्याय करेगा लेकिन जिस व्यक्ति के साथ न्याय होना है उसके साथ अन्य लोगो कर साथ हुए अन्याय का मूल्यांकन कौन करेगा? 

इसी के लिए संवैधानिक उपचार की व्यवस्था जन्म लेती है। भारत में कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी पुलिस की है लेकिन जब वे व्यवस्थापिका के दबाव में काम करने लगे तो निष्पक्षता संदेहास्पद हो जाती है। देखा जाए तो हर राज्य में पुलिस सत्तारूढ़ दल के लिए अधिकतर काम करते दिखती है। उनको इस बात से मतलब नहीं है कि उनका भविष्य क्या होगा अभिव्यक्ति की आज़ादी के क्या मायने होंगे और जबकि कॉपी, पेस्ट, एडिट का बाजार पसरा हुआ है तब किसी की अभिव्यक्ति संशोधित की जा सकती है। इसकी जांच किये बगैर किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही कहां तक उचित है? ऐसी कार्यवाही में एक व्यवस्था जरूर होनी चाहिए की यदि ऐसी कार्यवाही के बाद न्यायपालिका से कोई पीड़ित व्यक्ति बेदाग निकलता है तो शिकायकर्ता को उतनी ही सज़ा दिया जाए जितना ऐसे अपराध में सज़ा है।


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