हिंदी बहुत मीठी है

लेखक- संजय दुबे

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1981 में प्रेम विषय पर एक फिल्म आयी थी- एक दूजे के लिए। गैर हिंदी भाषी नायक का हिंदी भाषी नायिका के साथ प्रेम की ये फिल्म थी। नायक को हिंदी के एक शब्द भी पल्ले नहीं पड़ते थे। 

"प्रेम व्यक्ति को सब सीखा सकता है" इस फिल्म में नायक हिंदी सीखता है और सहनायिका के उत्कृष्ट हिंदी के बोल को सुनकर कहता है "हिंदी बहुत मीठी है"

 ये बात सौ फीसदी सही है कि वाकई हिंदी बहुत मीठी है। इसकी मिठास को देश के संविधान निर्माता या तो समझ नही सके या फिर अनेकता में एकता के चक्कर मे पड़कर मध्य मार्ग निकाल के भाषाई गुलामी के फेर में पड़ गए। आंग्ल भाषा का बोझ हम पर इतना भारी पड़ गया कि समाज मे ये धारणा प्रतिस्थापित हो गयी कि आंग्ल भाषा का ज्ञाता ही बुद्धिमान है।

 भाषा का अपना तरीका होता है, पसरने का, बस मौका मिलना चाहिए। देश के संविधान में हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने में असफल लोगो ने इसे राजभाषा बना दिया। आंग्ल दासता ने इस भाषा को भी बराबरी पर ला खड़ा किया। परिणाम सामने है कि देश के उच्च औऱ उच्चतम न्यायालय में जिरह की भाषा छोड़िए आदेश की प्रति हिंदी में नही मिल पाती है।

1991 में देश ने अंतरराष्ट्रीय अवरोधों को खत्म कर उदारीकरण प्रारम्भ किया तो शिक्षा का भी व्यवसायीकरण हुआ। कुकुरमुत्ते के समान आंग्ल भाषा के शिक्षा केन्द्र खुल गए। अभिभावक इस मुगालते में आ गए है कि आंग्ल भाषा के विद्यालय में जमा कर दो बच्चे होशियार हो जाएगा। ये तो अभिभावकों को तय करना है कि आंग्ल भाषा मे पढ़ाने के बाद निजी प्रोधोगिकी महाविद्यालय में पढ़ने के बाद बच्चा कहाँ खड़ा है। मेरा अपना मानना है कि उदारीकरण ने हुनरमंद विद्यार्थियों को देश के उन स्थानों में प्रतिस्थापित किया जहां हिंदी त्याज्य भाषा थी। केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना जैसे राज्यो में अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के जन्म ने हिंदी भाषी राज्यो के नागरिकों को जगह दे दी। आज आप इन राज्यो में जाकर हिंदी बोलकर काम चला सकते है। पेट की भूख और इसके लिए खुलते व्यवसाय ने हिंदी को स्थापित कर दिया है। ये हिंदी की सफलता है।

आज 14 सितम्बर है, 1949 के इसी दिन हिंदी राष्ट्र भाषा के बजाय राजभाषा बनी है लेकिन इतने साल गुजर जाने के बाद भी देश की न्यायपालिका(उच्चतम औऱ उच्च न्यायालय) में जिरह की बात छोड़िए निर्णय भी आंग्ल भाषा मे होते है। हाल में हिंदी में निर्णय की प्रति देने की कोशिश को भी हिंदी की सफलता मान लेना चाहिए।

19 करोड़ हिंदी समाचार पत्रों का दैनिक प्रकाशन ये तय करती है कि हिंदी मीठी नहीं बहुत मीठी है।


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