नाचती युवती-महिलाएं

लेखक - संजय दुबे

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देश भर में प्रथम पूज्य गणेश के स्थापना के दस दिनों बाद विसर्जन अनिवार्य प्रक्रिया है। "गणपति बप्पा मौर्या अगले बरस तू जल्दी आ" के नारे के साथ गली, मोहल्ले से छोटे,मध्यम और बड़ी मूर्तियों को तालाब- नदी में विसर्जन के लिए साज सज्जा, डीजे, बेंड बाज़ा के साथ निकल रहे है। इन जुलूसों में एक बात जो अद्भुत है और उत्साह जनक है वह है युवतियों- महिलाओं को सहभागिता। जितने उल्लास औऱ भाव भंगिमा के साथ युवक नाच रहे है उनसे कई गुना बेहतर तरीके से गानों में लगभग उन्ही स्टेप्स के साथ या उससे बेहतर ढंग से युवतियों औऱ महिलाओं का नृत्य कर रही है। ये दृश्य युवतियों- महिलाओं की एक तरह से उनके सशक्तिकरण का सार्वजनिक रूप है।

 एक जमाना था जब युवतियों को पढ़ाने के नाम पर उसे घर के इज्जत के रूप में परिभाषित कर आगे पढ़ने नही दिया जाता था। रजस्वला होते ही उसके विवाह की बाते चलने लगती थी। अगर स्कूल कालेज जा भी रही है तो समय की पाबंदी औऱ तयशुदा मार्ग से आने जाने और निगेहबानी भी होती थी।

  मुझे लगता है कि 1991 से जबसे देश ने मल्टीनेशनल कंपनियों के लिए भारत के द्वार खोले, को एडुकेशन के साथ स्कूल कालेज खुले। निजी क्षेत्र में रोजगार के अवसर ने महिलाओं के आत्मविश्वास के लिए नए द्वार खुले। बंद चारदीवारी से महिलाएं निकली और पुरुषो के साथ कदम से कदम, कंधे से कंधा मिलाकर चलने का जो दुस्साहस किया वह सचमुच प्रशंसनीय है। विवाह के बंधन में बंधने की अनिवार्यता के रोड़े को उन्होंने तोड़ा। स्वालम्बन ने उन्हें आत्मविश्वास से लबरेज़ कर दिया। आज जो काम पुरुष कर रहे है कमोबेश उन्हें महिलाए भी कर रही है।ऑटो से लेकर विमान चला रही है। प्रशासनिक दक्षता में उनकी संख्या बढ़ते जा रही है।अनुसंधान में वे अग्रसर है। इसी कारण जब उत्साह, उमंग की बारी आती है तो वे भाव विभोर होकर सार्वजनिक मंचो पर भी अवतरित होती है। शादी हो या पार्टी या फिर गणेश विसर्जन में निकलने वाले जुलूस में वे थिरकती है, नाचती है।संकोच का बंधन उनके खुशी के आगे टूटती दिख रही है। ये प्रगतिशील समाज का नया चेहरा है जिसमे गुलाल से सरोबार गणेश विसर्जन में शामिल है। सचमुच प्रथम पूज्य गणेश ने युवतियो के आत्मविश्वास को बढ़ाने में मदद की है


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