एशियाड विजेताओं को क्या मिले

लेखक : संजय दुबे

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पारुल चौधरी, एशियाड के ट्रेक पर 5000मीटर के दौड़ के अंतिम 50मीटर में अपनी सारी शक्ति लगाकर जब दौड़ लगाई तो उनके सामने स्वर्ण पदक  के जीत के साथ  उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा एशियाड में स्वर्ण जीतने वाले खिलाड़ी को डीएसपी बनाने का लक्ष्य भी दिख रहा था। सोचिए कि एक खिलाड़ी कितनी उम्मीद का सफर तय कर रही थी। ऐसा इसलिए क्योंकि खेल जीवन बमुश्किल 12-14साल का रहता है,उसके बाद खिलाड़ी भी दाल रोटी के चक्कर में पड़ जाता है। इसी कारण देश में "खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब"की कहावत घर घर में सुनाया जाता है ।

सचिन तेंडुलकर के मेट्रिक पास न  होने का उदाहरण बच्चे दे तो 140करोड़ में एक सचिन निकलता है जैसे कड़वे प्रवचन सुनने को मिलता है। इसका हल क्या है जिससे परिवार खुद आगे बढ़ कर अपने बच्चो को खिलाड़ी बनाने के लिए प्रेरित हो? एक सुखद अहसास रहा चीन एशियाड खेलो में भारत के खिलाड़ियों ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 107 मेडल जीते।

महिलाओ ने अपने दमखम से पुरुषो को खेल के मैदान में भी पीछे कर ये सिद्ध कर दिया कि यदि उन्हें उनका परिवार साथ दे तो वे भी देश का नाम रोशन कर सकती है।  देश में अंतराष्ट्रीय स्तर पर  पदक जीतने वाले विशेष कर स्वर्ण पदक जीतने वाले खिलाड़ियों को केंद्र और उनके राज्य सरकार के साथ साथ अन्य राज्यो और निजी संस्थानों द्वारा नगद राशि के साथ साथ सरकारी नौकरी देने का प्रावधान है।

28स्वर्ण पदक जीतने वाले खिलाड़ियों चाहे वे व्यक्तिगत रूप से जीते हो या टीम के सदस्य के रूप में, उन्हें राज्य सरकार क्लास 2रेंक के पद पर  नियुक्ति देने की व्यवस्था रखी है। इस प्रावधान में एक लोचा है जिसे केंद्र और राज्य सरकार के मुखिया को ध्यान में रख कर नए नियम बनाने की जरूरत है। आमतौर पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय खेलो में शानदार प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ी पढ़ाई के मामले में कमजोर होते है क्योंकि उनका ध्यान खेल में लगा रहता है।

उनके लिए दो दो परीक्षा एक साथ होती है जिसके कारण  वे खेल में बढ़ जाते  है लेकिन पढ़ाई में पिछड़ जाते है। देश में चाहे  यूपीएससी हों या राज्यो की पीएससी परीक्षा ईस या कोई अन्य तृतीय श्रेणी की सरकारी नौकरी, अनिवार्य योग्यता किसी भी संकाय की स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण होना ही  आवश्यक है। किसी भी खिलाड़ी को  खेल कोटे में चयनित होने के लिए ये एक ऐसी बाधा है जिसके कारण खिलाड़ी या तो खेल या पढ़ाई में पिछड़ जाता है।    

भारतीय महिला क्रिकेट टीम की कप्तान  हरमनप्रीत कौर खेल के बल पर रेल्वे में कार्यरत थी। उनके शानदार प्रदर्शन के चलते उनको पंजाब पुलिस में क्लास 2पद  डीएसपी बनाया गया। खेल के चलते  हरमनप्रीत कौर ने विश्वास करके किसी विश्वविद्यालय से डिस्टेंस एजुकेशन के माध्यम से स्नातक की डिग्री प्राप्त की।बाद में पता चला कि डिस्टेंस एजुकेशन वाली संस्थान जिसे राज्य सरकार ने मान्यता दी थी, बोगस निकली। हरमनप्रीत कौर को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा।  ऐसा क्यों है कि किसी खिलाड़ी के अंतराष्ट्रीय या राष्ट्रीय स्तर पर शानदार प्रदर्शन करने और देश के लिए पदक लाने के बाद भी सरकारी नौकरी के लिए पढ़ाई की अनिवार्यता आड़े आ जाती है?

 भारत और देश के राज्य की सरकारों को चाहिए कि पढ़ाई की अनिवार्यता को ऐसे खिलाड़ी जो ओलंपिक, एशियाड या अन्य अंतराष्ट्रीय खेलो में  स्वर्ण पदक जीतते है तो उनकी शैक्षणिक योग्यता न देखी जाए और उन्हें ससम्मान सरकारी स्तर पर क्लास 2 रेंक की नौकरी दी जाए। रजत और कांस्य पदक जीतने वालो को क्लास 3रेंक में बिना शर्त नौकरी दी जाए।  देश के स्वाभिमान  के लिए सालो मेहनत  करने कर पदक जीतने वालो के लिए ये सुविधा मिलनी चाहिए। जब ऐसी व्यवस्था हो जायेगी तो किसी बच्चे के अभिभावक अपने बच्चे को खिलाड़ी बनाने के लिए जोखिम भी उठाएंगे। खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब की लोकोक्ति से निजात पाने के लिए खिलाड़ियों को  पढ़ाई की अनिवार्यता से मुक्त करना ही होगा।


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