किताब दुकानों का देहावसान

लेखक- संजय दुबे

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एक शहर किताबो की दुकान के बिना एक शहर नहीं है -ये बात कुछ दिन पहले बिलासपुर के प्लेटफार्म में व्हीलर्स की किताब दुकान में ताला लगा देखा तो मन में आया।

वो जमाना भी याद आया जब मनोरंजन के लिए साधन सीमित थे। फिल्मे थी तो उनका समय निर्धारित था। ऐसे में किताबे सहारा हुआ करती थी। विशेषकर जब व्यक्ति, यात्री हुआ करता था। भारत में रेलवे का सफर 16अप्रैल 1853से शुरू होने के24साल बाद प्रयागराज रेलवे स्टेशन में पहला किताब दुकान खुला था। ए. एच .आर्थर हेनरी जो किताबो के शौकीन थे उन्होंने यात्रियों को ट्रेन के इंतजार में किताब पढ़ते देखा तो उन्हें लगा कि मुख्य प्लेटफार्म में कम से कम एक किताब की दुकान होना चाहिए। इस किताब की दुकान को इंडियन रेलवे लाइब्रेरी के नाम से भी जाना जाता था।

 भारत के लगभग आठ हजार रेल्वे स्टेशन में से 1300 रेल्वे स्टेशन प्रमुख है। इनमे से 258रेल्वे स्टेशन में व्हीलर्स की किताब दुकानें खुली।

आजादी के बाद ए एच व्हीलर्स के वित्तीय प्रबंधन देखने वाले बनर्जी दंपत्ति ने अधिग्रहण किया लेकिन नाम पुराना ही रहने दिया। करोड़ो यात्रियों के लिए सफर के समय के लिए रेल्वे स्टेशन के किताब दुकानों में दैनिक साप्ताहिक समाचार पत्र, पाक्षिक मासिक पत्रिका, सहित उपन्यास, उपलब्ध रहा करती थी।अनेक भाषा के समाचार पत्र पत्रिकाएं केवल रेल्वे स्टेशन की किताब दुकानों में ही उपलब्ध हुआ करती थी।

 मुख्य प्लेटफार्म के अलावा अन्य मुख्य प्लेट फार्म में किताब दुकान के अलावा ट्रॉली में चलित किताब दुकान हुआ करती थी।

1976में रेल्वे मंत्रालय द्वारा व्हीलर्स के किताब दुकान के एकाधिकार को खत्म करने के लिए स्पर्धात्मक किताब दुकान खोलने का निर्णय लिया। इसके बाद धार्मिक विषयों की किताब दुकानें खुलने लगे। टेलीविजन युग के आने से एक साथ देखने सुनने का दौर शुरू हुआ। 

भारत में कंप्यूटर युग की शुरुवात के साथ ही समाचार पत्र पत्रिका के पाठन का ह्रास शुरू हुआ।

2004में रेल्वे मंत्रालय ने रेल्वे स्टेशन को कमाई के हिसाब से 5वर्गो में बांट दिया और उनके आय के हिसाब से किताब दुकानों को निविदा के माध्यम से देने का निर्णय लिया तब तक देर हो चुकी थी।

मोबाइल युग के प्रसार ने मेनुवल को डिजिटल में बदल दिया । पत्र पत्रिकाएं पन्नो की जगह पीडीएफ में बदल गई। 

रेल्वे स्टेशन की पत्र पत्रिकाओं की दुकानें सिमटने लगी। समाचार पत्रों सहित पत्रिकाओं की संख्या घटने लगी। प्रकाशन संस्थानों ने विक्रय के पश्चात पैसे लेने के बजाय पहले अग्रिम भुगतान मांगने लगे तो शिक्षा और मनोरंजन का साधन संबंधी किताब दुकान असामयिक होने लगी। 

समाचार पत्र पत्रिका के स्थान पर मिनरल वाटर, चिप्स, बिस्किट दिखने लगे तो लगा कि सरस्वती पर अनपूर्णा भारी पड़ गई है। अब स्थिति ये भी आ गई है कि न तो समाचार पत्र और न ही पत्रिकाएं है जो पन्नो में छपती हो सब डिजिटल हो गया है। सारी दुनियां मोबाइल में सिमट गई है। किताबे चाहिए तो ऑन लाइन मांग करना पड़ रहा है।

सचमुच युग बदल गया है।


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