क्या हत्यारों को शहीद कहना सही.. ?

लेखक- संजय दुबे

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 दुनियां भर में हर दिन किसी न किसी हत्यारे के द्वारा किसी निर्दोष व्यक्ति या व्यक्तियों की हत्या की जाती है। कुछ अलगाववादी, आतंकवादी संगठन भी है जिनके सदस्य केवल हत्या नहीं करते बल्कि निर्मम और पाशविक तरीके से हत्या करते है और ऐसे हत्या का जश्न मनाते है। ज्यादा साल नही हुए है कांग्रेस के नेता नंद कुमार पटेल उनके बेटे सहित बस्तर टाइगर कहे जाने वाले महेंद्र कर्मा की अन्य नेताओं के साथ बस्तर में निर्मम और पाशविक हत्या का दुख अभी भी खत्म नहीं हुआ है। इन्हे मारने वाले और कोई नही नक्सलवादी थे। 

 दो दिन पहले इन्ही नक्सलवादियों में से 29 नक्सलवादियों को सुरक्षा बल ने ढेर कर दिया गया। "ढेर"शब्द इसलिए क्योंकि चारो तरफ से घेर कर बेहिसाब गोलियां दागी गई थी। बचने की कोई जगह नही मिली होगी नक्सलवादियों को। इनमे कई हत्यारे ऐसे थे जिन पर लाखो के ईनाम भी थे। इनके भी शरीर गोलियों से छलनी हुए। सुरक्षा बल के जवानों की पीठ थपथपाई जाना चाहिए जिन्होंने बहुत दिनो बाद इकट्ठे 29नक्सलियों को मारा ।

हमारे यहां हर घटना को राजनैतिक चश्मे से देखने का चलन है। इस घटना का भी रंग देखने की कोशिश हुई लेकिन औंधे मुंह गिरते दिखे तो सम्हलने की असफल कोशिश भी हुई। दिल्ली से एक जिम्मेदार व्यक्ति का व्यक्तव्य 

 भी आ गया कि नक्सली "शहीद" हुए। कुछ लोगो ने सक्रियता दिखाते हुए मुठभेड़ को फर्जी बताते हुए निर्दोष आदिवासियों की हत्या बता दिया गया। अगर नक्सली स्वीकार नहीं करते तो शायद बयानबाजी जारी रहती लेकिन अपने शब्दो से पलटना पड़ा क्योंकि सच सामने आकर खड़ा हो गया था।

 नक्सली आतंकवादी संगठन है इससे किसी को इंकार नहीं है। कुछ लोग आपत्ति कर सकते है जिनका दाना पानी इन संगठनों के बल पर चलता है। ऐसे लोग ही नक्सलियो के प्रति सहानुभूति रखते है और जब भी केंद्र के सुरक्षा बल ऐसे घटना को अंजाम देते है वे नंद कुमार पटेल और महेंद्र कर्मा की निर्मम हत्या को भूल जाते है।

 विवाद का मुद्दा है कि नक्सली "शहीद"कैसे मान लिए गए? शहीद शब्द का उपयोग केवल सेना के लिए सर्वाधिकार सुरक्षित है। देश या देश के नागरिकों को बचाने के लिए संघर्ष कर गवाई गई जान जिसमे अदम्य साहस का सम्मिश्रण होता है ऐसे सेना के लोगो के किए जाने पर सेना ही इन्हें शहीद का दर्जा देती है। ये काम सरकार या किसी राजनैतिक दलों या किसी गैर सरकारी संगठनों का अधिकार नहीं है जो किसी भी व्यक्ति को शहीद बना दे। इसके बावजूद लोकतंत्र के नाम पर "शहीद" बनाने की दुकान कही भी कभी भी खुल जाती है। जैसे 29नक्सलियों के मारे जाने के बाद खुली थी।

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि हम सभी भगत सिंह के "शहीद ए आजम" कहते है । उनका नाम अंग्रेजी गजट में आतंकवादी के रूप में लिखा है। आजादी के बाद किसी भी सरकार ने उन्हे "स्वतंत्रता संग्राम सेनानी"का दर्जा नहीं दिया। उनके लिए भारत रत्न मांगना तो शायद देश द्रोह हो जाए।  

 नक्सली किसी कोने से न तो देश भक्त है और न ही उनका देश के संविधान, कानून व्यवस्था पर विश्वास है। नक्सली मूलतः माओवादी है जो किसी देश की आंतरिक संप्रभुता को तार तार करने के लिए बाहरी देशों से हथियार पैसा लेते है। ऐसे लोग किसी देश के नासूर है जिनका बड़ा इलाज जरूरी है। ऐसे लोगो के मरने पर रूदाली विलाप करने वालो को शर्म आनी चाहिए जो जल्दबाजी में ऐसे वक्तव्य देते है जिससे सिर शर्म से झुक जाता है। आज आप जिस वातावरण में रह रहे है उसमे सजगता अतिरेक में है। ये भी तुरंत निर्धारित हो जाता है कि आपकी विचारधारा आपको कहां पर किसके साथ, किसके खिलाफ खड़ा कर रही है। वक्त भी नाजुक है लोकसभा चुनाव सिर पर खड़ा है आप इसमें खड़े हो रहे है या बैठने वाले है ये भी तय होगा जिसका खुलासा 4जून को हो जायेगा। शब्द न सम्हालते हो तो जुबां बंद रखिए लेकिन ऐसे बोल न बोले कि शहीद व्यक्तियो के परिवार को ये लगे कि उनके परिवार का "शहीद" नक्सली जैसा था।


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