हनुमान जी ने जो लिखवाया
लेखक- संजय दुबे
रात का अंतिम पहर .... अधखुली नींद के साथ सोने जागने का उपक्रम चल रहा था। अचानक लगा कि आसमान सिंदूरी हो रहा है।सात घोड़ों के रथ पर सूरज अपनी किरणों को बिखरने का काम शुरू कर रहा था। रथ से एक महारथी शनै शनै उतरा, भीमकाय शरीर, सूरज की किरणों के कारण चेहरा दिख नही रहा था। आकृति मेरे सम्मुख आकर खड़ी हो गई।
वत्स, मुझे पहचानें?
मुझे लगा कि सामने खड़ा विशाल व्यक्तित्व असाधारण ही है और कमोबेश इस ग्रह का तो नही है। इतना ऊंचा कि सर को पूरा पर भी स्पष्ट दिख नही रहा था।आधुनिक युग में विज्ञान का भूत सर पर सवार रहता है तो ज्ञान पहले विज्ञान के दृष्टि कोण से दिमाग लगाता है। मैं भी सोचा, एलियन हो सकता है, लेकिन वत्स, जैसा शब्द तो देव लोक के ही निवासी कह सकते है।
विज्ञान, ध्वस्त हो चला था, ज्ञान धर्म की तरफ झुकने लगा। कही भगवान तो नही और भगवान भी है तो कौन से!
बचपन से घर में स्नान के बाद रामायण के दोहे छंद पढ़वाने का वातावरण था और हनुमान चालीसा अनिवार्य। घर से बाहर निकलते ही हनुमान मंदिर पड़ता सो कभी भीतर जा कर तो कभी बाहर से ही राम राम हो जाती थी।हां, मंगलवार और शनिवार की शाम शाम की आरती के बाद देर तक मंदिर के बाहर प्रसाद के चक्कर में बैठे रहना शगल था। भक्त इन्ही दो दिन प्रसाद चढ़ाते तो बाहर निकलते समय भक्तो को बाटते जरूर थे।हम लोग भक्त कम प्रसाद ईक्छुक लोग ज्यादा हुआ करते थे।
मन में आया कि कल हनुमान जयंती है कही हनुमान जी तो नही!, मन में आया कि कह दूं अरे, आपको सारा संसार जानता है, मैं क्या, लेकिन रिस्क था कि पहचानने में गलती हो गई तो मूर्ख शब्द बहुतायत से कहा जाने वाला सरभौमिक शब्द है। वैसे भी मूढ़ता तो है ही।चुकीं विशाल व्यक्तित्व ने पूछ ही लिया था तो प्रति प्रश्न करने में कोई दिक्कत नही थी।
प्रभु, मेरी औकात कहां कि मैं आपको पहचान पाऊं फिर भी मुझे लगता है कि आप भगवान राम भक्त केशरी नंदन हनुमान जी ही है। एक कोतूहल है अगर वाजिब लगे तो पूछूं।
अपना आकार छोटा कर बराबरी में खड़े हो गए तो यकीन हो ही गया कि इतना तेज, असाधारण हनुमान में ही हो सकता है।
भाव विभोर होकर मैं पूछ बैठा भगवन, मैं तो किंचित आपका अंत्योदय भक्त हूं क्योंकि न तो विधि से न विधान से आपकी पूजा करता हूं और न ही एकाग्र होकर हनुमान चालीसा पढ़ता हूं। आपके मंदिर भी जाता हूं तो आपके एक बार दर्शन करने के बाद फिर से दुनियादारी में पड़ जाता हूं। मंदिर में भी स्वार्थ पनपते रहता है, बुरे भाव भी आते है। में लाखो भक्त आपके मुझसे कई गुना सच्चे अनुयाई है। उन्हे दर्शन देना चाहिए था।
मुझे पता था कि तुम जैसे भी हो सच बोल रहे हो, आज चार पांच भक्तों के पास गया था लेकिन वे दिमाग से काम ले रहे थे।
अच्छा मैं तुम्हे कोई वरदान देना चाहूं तो कुछ मांगोगे।
मैं दिमाग लगाया कि भगवन ने पहले के भी भक्तो से यही प्रश्न पहले पूछा होगा।ललचा गए होंगे, सब। मैं बोल पड़ा भगवन कलियुग में आपका दर्शन ही वरदान है। मुझे कुछ नहीं चाहिए, मेरे पास जो है पर्याप्त है। वे तो अंतर्यामी थे समझ गए होंगे कि बंदे ने गणित लगा लिया।
" भगवन, आसन ग्रहण कीजिए ।"मैने सामने रखी कुर्सी की ओर इशारा किया।
"तुम्हारे यहां आसनी नहीं है क्या । मैं दुनियां की हर कुर्सी को भगवान राम का सिंहासन मानता हूं इस कारण जमीन में ही आसन लगाता हूं।"
दर असल मेरे घर के मंदिर में एक आसनी है जरूर लेकिन महीनो से घुली नही थी।
"प्रभु ,चादर को घड़ी कर बिछा दूं तो बैठ जायेंगे क्या दरअसल आसनी साफ नही है।"
प्रभु ने हामी भर दी
उनको चादर की आसनी में बैठाकर मैं जमीन पर उनके सम्मुख बैठ ध्यान से देखा हजारों वर्ष की उम्र बीत जाने के बाद भी तेज बरकरार था
"दरअसल मेरा तुम्हारे पास आने का कारण है।"
मैं अचंभित हो गया,डर भी लगा।कही बोल पड़े चलो साथ में तो सांसारिक कर्म और कुकर्म अधूरे रह जायेंगे।
मन को तुरंत पढ़ कर बोले मैं तुम्हे कही ले जाने नही आया हूं "तुम लेखक हो,मेरी कुछ बाते लोगो तक पहुंचा दोगे तो बेहतर होगा"
मैं करबद्ध हो कर कहा "भगवन मुझसे कही लाख गुना श्रेष्ठ लेकर मेट्रो सिटी में है, रायपुर में भी है, आप मुझमें ऐसा क्या देख लिए"
"इस प्रश्न का उत्तर तुम्हे नहीं मिलेगा। जो बात मैं कह रहा हूं उसे तुम्हे लिख कर प्रकाशित करवाना है।मैं ये भी जानता हूं कि असर बहुत कम होता है लेकिन शुरुवात तो हो।
मेरे पास विकल्प नहीं था। मैं ने पूछा भगवन विषय बताएंगे तो मैं प्रयास करूंगा।
तुम तो जानते हो ।मैं सर्वत्र उपलब्ध हूं, जीवित किवदंती हूं। हर गली मोहल्ले में बहुत ही छोटी सी किसी भी जगह में विराजमान कर दिया जाता हूं। किसी भी पत्थर पर केसरी रंग चढ़ाकर मेरा स्वरूप दे दिया जाता है। तुम लोगो के शब्दो में "अतिक्रमण " कहते हो।मुझे इससे कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि सरकार विस्थापन करने का विकल्प ला चुकी है। मेरा कहना है कि" तुम्हारे यहां सरकारी कर्मचारियों की संख्या बहुत अधिक है। इनके अपने कार्यालय होते है। कार्यालय में टेबल कुर्सी भी होती है। मेरे लाखो भक्त। मेरी तस्वीर टेबल में रखे कांच। के नीचे लगाते है कार्यालय पहुंच कर मुझे स्पर्श कर याद कर प्रणाम करते है। कार्यालय छोड़ते है तो फिर स्पर्श कर प्रणाम करते है"
मैं बीच में हस्तक्षेप कर गया"ये तो बड़े पुण्य का काम है कि जनता की सेवा करने से पहले और बाद में आपका स्मरण करते है।"
"असली बात सुन लो,"भगवन मेरे बीच में बोलने से व्यथित हो गए
"जी प्रभु, क्षमा चाहूंगा"
ईश्वर को मनाना हमेशा सच्चे मन का कार्य है। मेरे अधिकांश सरकारी भक्त ,मेरा भी सरकारीकरण कर रहे है। मेरा अस्तित्व केवल मंदिर और मन में है । सरकारी कार्यालय में मेरा मंदिर बने तो नियम से बने। मैं स्वयं नियम से जीवन से इसलिए जीता हूं क्योंकि मैं मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का भक्त हूं। मेरा सारे सरकारी कर्मचारी रूपी भक्तों से कहना है कि आप मेरी तस्वीर अपने कार्यालय के टेबल के कांच के नीचे न लगाए क्योंकि इन्ही टेबल में आप कर्म तो करते ही है अनेक ऐसे कर्म करते है जो धर्म में निषेध है। निषिद्ध कार्यों के लिए मैं अंजाने में चश्मदीद गवाह बन जाता हूं। ये मेरी पीड़ा है। मेरा ये संदेश लोगो तो दे सको तो तुम्हे एक जिम्मेदार भक्त के रूप में स्थापित होंगे।"
मैंने आश्वस्त किया कि ये बात अवश्य लिखूंगा।
मेरे सामने की आकृति अदृश्य हो चुकी थी।
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