आखिर सास मां क्यों बनना नहीं चाहती

लेखक- संजय दुबे

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हर मां बेटे के लिए अच्छी हो, ये सामान्य बात है लेकिन घर में बेटे की पत्नी के लिए अच्छी हो ये जरूरी नहीं है!

 इस दुनियां में मां को भगवान से ऊपर का दर्जा दिया गया है। इसका कारण भी है चाहे व्यक्ति हो या पशु या पक्षी, उसके जन्म का एकमात्र स्त्रोत मां ही है( चाहे वह किराए की मां क्यों न हो)हिंदू धर्म में जितनी भी देवियां है उन्हे मां , माता, के रूप में हम सभी ने अभिनंदित किया है। मां के त्याग, समर्पण,बलिदान की सच्चाईयो से हर भाषा का साहित्य अटा पड़ा है। अपवाद से इंकार करना हमारी भूल होगी यदि हम किसी भी बात को अकाट्य मान ले।

 सामाजिक परिवेश में बेटे की मां बेटे के पत्नी की रिश्ते में सास होती है। भारतीय संस्कृति में ये रिश्ता सबसे जटिल रिश्ता है। इसकी अनेकानेक बार पुष्टि भी होती रही है कि पति की मां बेटे की पत्नी के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित होती है। आजादी के बाद से चालीस साल में घरों तक सीमित सास बहू के रिश्ते घर के भीतर ही सीमित रहते थे ।इस दौर में सास के बहु के प्रति बैर भाव सामान्य बात थी। भारत की प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी भी सास बनी तो मेनका गांधी के प्रति व्यवहार सामान्य नहीं था। संजय गांधी के आकस्मिक निधन के बाद सास बहू एक छत के नीचे नही रह पाए । हाल ही में एक घटना ने सुर्खिया बटोरी है वह है मरणोपरांत कीर्ति चक्र पाने वाले डा अंशुमन सिंह की मां का बयान जिसमे उन्होंने अपने मृत बेटे की पत्नी के बारे में सार्वजनिक रूप से ऐसी बात कही है जो एक बेटे की मां को शोभा दे सकता है लेकिन एक बहु की सास को शोभा नहीं देता है। 

 ये माजरा तो तब भी दिख रहा था जब राष्ट्रपति भवन में डा अंशुमन सिंह को मरणोपरांत कीर्ति चक्र दिया जाने वाला था। सेना का स्पष्ट नियम है कि अविवाहित मृत को मिलने वाला सम्मान उसके माता पिता को मिलेगा और अगर मृत सेना का व्यक्ति है तो पत्नी हकदार होगी। इस नियम का पालन हुआ होता तो डा अंशुमन सिंह की मां को कीर्ति चक्र प्राप्त करने के लिए बहु स्मृति सिंह के साथ जाने का भी हक नही मिलता। उनको केवल मानवीय आधार पर अनुमति मिली थी लेकिन वे नियमो से परे जाकर कीर्ति चक्र के प्रति अधिकार जता रही है और नियम से न मिलने पर बहु के प्रति जो बयानबाजी कर रही है वो शर्मनाक है।

 स्मृति सिंह पढ़ी लिखी विदुषी महिला है। कम उम्र में उन्होंने अपना जीवन साथी खोया है यद्यपि डा अंशुमन सिंह के माता पिता ने भी अपना बेटा खोया है।दुख के पासंग में देखे तो मां बाप के दुख से ज्यादा दुख पत्नी का है। मां बाप के पास बेटा 28साल रहा लेकिन पत्नी के पास महज दो महीने?

मायने रखता है।

 हमारे देश में शहरी साक्षरता का प्रतिशत 87.7है। ये साक्षरता प्रतिशत सामाजिक पढ़ाई के मामले में बहुत ही कमजोर है। सास जैसे चरित्र की पढ़ाई में बुद्धिमानी का प्रतिशत दयनीय है। सास जिस वातावरण में जी रही है उसमे अपनी ही उम्र की महिलाओ से उनकी बहुओं के बारे में पूछताछ, चुगली और तुलना का विषय प्रमुख है। पहले दोपहर में एक स्थान पर बैठकर ये काम होता था अब किटी पार्टी या मोबाइल में बातो के जरिए हो रहा है।

 ऐसा लगता था की शिक्षा के चलते सास परंपरा टूटेगी और सास बहू का रिश्ता मां बेटी के रिश्ते में बदलेगा लेकिन इस परिवर्तन की गति इतनी धीमी है कि लगता नही है कि मर्ज का इलाज जल्दी हो पाएगा।

  आज के दौर में साधारण पढ़ाई करने वाली लड़कियां कामकाजी होते जा रही है।उनके पास सामाजिक चकल्लस के लिए समय नहीं है। वे आर्थिक आधार पर परजीवी नही होना चाह रही है। इस प्रक्रिया में विवाह के बाद दोहरी जिम्मेदारी निभाने की बेबसी भी है। ऐसे में घरेलू होना असम्भव है। ये बात घर पर रहने वाली सास झेल नहीं पा रही है और कुढ़न बढ़ते जा रही है। स्मृति सिंह के मामले में भी यही बात सामने है। बताया जा रहा है कीर्ति चक्र बहु के पास है, अब इन मूर्खो को नियम का ज्ञान नहीं है तो इसमें स्मृति सिंह का क्या दोष है। नियम से स्मृति सिंह कीर्ति चक्र की हकदार है तो है। डा अंशुमन सिंह की मां मृत बेटे के सम्मान पर राजनीति की पाठशाला खोल कर बैठ गई है। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी से मिलकर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से पक्ष रखने की बात सस्ती लोकप्रियता से ज्यादा कुछ नहीं है। बड़े, बड़े नही बन पाते है, ये एक सामाजिक समस्या है। बेहतर ये होता कि स्मृति सिंह अपने भविष्य के जीवन को डा अंशुमन सिंह के बिना जीने के लिए योजना बना रही हो तो सास को मां बनकर सहयोग करना था इससे परे कीर्ति चक्र न मिलने पर समाचार पत्रों में बयानबाजी करना निम्न दर्जे का काम है।


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