न हिंदी है न वतन हिंदुस्तान हमारा

लेखक - संजय दुबे

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 भारत या हिंदुस्तान यही दो शब्द ऐसे है जिससे इस बात का आभास होता है कि दुनियां में एक देश है जो जनसंख्या के नाम पर दुनियां का पहले नंबर का देश है। इस देश के साथ एक दुर्भाग्य भी है कि इस देश की दूसरे देशों के समान खुद की राष्ट्र भाषा नही है बल्कि राजभाषा है। हिंदी के राजभाषा होने का उल्लेख देश के संविधान के अध्याय17के खंड343(1) में है। दुनियां में सर्वाधिक रूप से बोले जाने वाली भाषा अंग्रेजी,फिर चीनी और तीसरे क्रम में हिंदी भाषा है जो बोली और लिखी जाती है।इसके बाद भी अगर हिंदी राष्ट्र भाषा, राष्ट्रीय भाषा नहीं है तो ये देश में राजनीति करने वालो के लिए चिंतन का विषय होना चाहिए।

  ईस्ट इंडिया कंपनी इस देश में आई तो भाषाई विविधता को देखकर समझ गई थी कि यहां भाषाई एकता न होने का फायदा मिल सकता है ।उन्होंने इसका फायदा उठाया ।रियासतों में बंटा देश भाषाई फर्क के चलते गुलाम हो गया। अंग्रेजो ने अपनी भाषा का मान ऐसा बढ़ाया कि अंग्रेजी उस समय से लेकर अब तक सभ्रांत लोगो की परिचायक बन गई है।आज भी जिन्हे अंग्रेजी भाषा बोलना लिखना नहीं आता वे ग्लानि महसूस करते हैं।

  हिंदी के विकास को शासकीय सहयोग कभी नहीं मिला, ये तो स्वीकारने में हिचक नहीं होना चाहिए।

 महात्मा गांधी,काका कालेलकर,हजारी प्रसाद द्विवेदी,सेठ गोविंद दास और व्योहार राजेंद्र प्रसाद के अथक परिश्रम ने हिंदी को स्थापित करने का बहुत प्रयास किया था।वक्त के साथ उनके किए कराए पर पानी फिर गया।

 आजादी के 43साल बाद विदेशी कंपनियों ने गैर हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी भाषा को लिखने में भले न सही बोलने में तो स्थापित कर दिया। दक्षिण के राज्यो खास कर तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, में हिंदी का विरोध है।इसका कारण है कि कन्नड,तमिल और तेलगु भाषा के प्रवर्तक मानते है कि उनकी भाषा हिंदी से ज्यादा समृद्ध है।इन राज्यो में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने रोजगार के ऐसे अवसर बनाए कि देश भर के खासकर हिंदी भाषी राज्य के लोग यहां पहुंच गए, बस गए। अब स्थिति ये है कि रोजगार चाहिए तो हिंदी टूटी फूटी बोलना पड़ रहा है समझना पड़ रहा है। दक्षिण के कुछ शहरों में उत्तर के खानपान की पहुंच ने बहुत हद तक भाषाई द्वेष को कम किया है।

हिंदी भले ही राष्ट्रीय भाषा का दर्जा भले न पाए लेकिन जनमानस की भाषा जरूर है। इसे स्थापित करने के लिए दिवस की नही सालो की जरूरत है


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