वन नेशन, वन इलेक्शन

लेखक : संजय दुबे

feature-top

 

किसी भी देश मे वन नेशन के साथ अनेक बातों को जोड़ कर नई व्यवस्था का निर्माण किया जा सकता है। संविधान में संघीय ढांचे में राज्यो के स्वतंत्र अस्तित्व को लेकर अनेक बार विवाद की स्थिति आती है। ऐसे में कई बार महसूस होता है कि वन नेशन में सभी बातें समान क्यो नही है। 
कुछ समय पहले कोरोना काल मे जब हर व्यक्ति एक जगह पर थम गया था तब भोजन की समस्या सबसे बड़े रूप में उभरी।वन नेशन- वन राशनकार्ड से देश भूख से बेहतर तरीके से लड़ सका।
वन नेशन वन ला की  प्रक्रिया प्रगति में है।इसके बाद वन नेशन वन इलेशन की तैयारी राजपत्र में प्रकाशन के साथ शुरू हुआ था और अब राष्ट्रपति द्वारा भूतपूर्व राष्ट्रपति कोविंद द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट को प्राप्त कर लिया है।

 राष्ट्रीय मितव्ययिता के लिए वन नेशन - वन इलेक्शन एक अनिवार्य प्रक्रिया होना चाहिए।
 2023 के अंत से लेकर 2024 के समाप्ति तक लोकसभा चुनाव सहित 12 राज्यो में  में से 9राज्यो के विधानसभाचुनाव हो चुके है । तीन राज्य  हरियाणा,, झारखण्ड की बारी है। 
  ऐसा नही है कि वन नेशन वन इलेक्शन की सोंच नई है। 1952 से लेकर 1967 तक लोकसभा और राज्यो के विधानसभा के चुनाव साथ साथ होते आ रहे थे। 1959 में केरल की कम्युनिस्ट सरकार को भंग किये जाने के बाद केरल वन नेशन वन इलेक्शन की प्रक्रिया से बाहर होने वाला पहला राज्य बना। 1968 औऱ 1969 में कुछ राज्यो के विधानसभा भंग कर राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के बाद से वन नेशन वन इलेक्शन प्रक्रिया बाधित हो गयी।अस्सी के दशक में राष्ट्रपति शासन का इतना उपयोग हुआ कि देश हर पांच साल में दो साल तक चुनाव ही झेलने लगा। 1971 में लोकसभा भी एक साल पहले भंग किये जाने के बाद वन नेशन वन इलेक्शन व्यवस्था तार तार हो गयी। देश के राज्यो में 132 अवसरों पर राष्ट्रपति शासन लगा है। एस. आर बोम्मई बनाम भारत संघ 1994 के निर्णय के बाद राष्ट्रपति शासन का उपयोग/ दुरुपयोग बंद हुआ।

 1983 में चुनाव आयोग ने वन नेशन वन इलेक्शन का सुझाव दिया।1999 में विधि आयोग के अध्यक्ष बी. पी. रेड्डी ने इस विचार को आगे बढ़ाया। 2015 में कार्मिक, सार्वजनिक शिकायत, कानून औऱ न्याय की स्थाई समिति ने अनेक कारण बताते हुए वन नेशन वन इलेक्शन का सुझाव दिया था। आठ साल बाद विधिक रूप से पुनः विचार को मूर्त रूप देने की प्रक्रिया शुरू हुई है।

 वन नेशन वन इलेक्शन के विचार के पीछे राजनैतिक सोंच जो भी हो लेकिन आम जनता के लिए अनेंक चुनाव सरदर्द ही है। ध्वनि प्रदूषण से लेकर पोस्टर युद्ध के साथ रैलियों के चलते दो महीने तक असामान्य जीवन जीना कठिन होता है। इसके अलावा कानून व्यवस्था, सरकारी कर्मचारी के चुनाव कार्य पर लगने से प्रभावित होते कार्य और केंद्र सहित राज्य सरकार के खर्च के चलते वन नेशन वन इलेक्शन सार्थक पहल है। माना जाता है कि लोकसभा चुनाव में दस हज़ार करोड़ औऱ विंधानसभा चुनाव में चार हज़ार करोड़ रुपये खर्च होते है।

 देश तो पहले चार लोकसभा चुनाव सहित विधानसभा चुनाव करा चुका है।इस कारण जब राजनैतिक नफा नुकसान की बात होगी तो इतिहास के पन्ने गवाह बनेंगे।
जहां तक संवैधानिक गतिरोध की बात ले तो संविधान में अनुच्छेद 83 संसद के दोनो सदनों का कार्यकाल निर्धारित करता है। अनुच्छेद 83(2) लोकसभा की पहली बैठक से 5 साल औऱ अनुच्छेद 172(1) विधानसभा की पहली बैठक से 5 साल का कार्यकाल निर्धारित करता है। संविधान केअनुच्छेद 83,85, 172,174, औऱ 356 में संशोधन किए बगैर फिलहाल वन नेशन वन इलेक्शन संभव नहीं है। ये संशोधन कब होगा इस बारे में सरकार की राय ये है कि इसे  इस कार्यकाल में लाया जाएगा याने चार साल नौ महीने का समय शेष है। इस अवधि में जिन राज्यो में  सरकारें पांच साल के कार्यकाल में 2029में आगे पीछे होते है तो समय बढ़ा घटा कर बीच का रास्ता खोजा जा  सकता है।


feature-top