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श्रद्धा सुमन अमर वीर जांबाज़ आज़ाद
लेखक: संजय दुबे
आमतौर पर सरकारें कहती कुछ है करती कुछ है तो मन मे दुख के साथ क्षोभ भी होता है कि सत्ता पाने के लिए जो रास्ते चुने जाते है उसे सत्ता पाने के बाद क्यो भुला दिया जाता है। इस देश की आज़ादी में किसी भी व्यक्ति का इकलौता योगदान नही रहा है। लाखो करोड़ो लोगो ने योगदान दिया है लेकिन जो व्यक्ति सत्ता के लिए सहयोगी होता है उसे महिमामंडित करना राष्ट्र धर्म हो गया है। जिन अंग्रेजो ने इस देश मे अपनी सत्ता को 1929 के बजाय 1947 तक ले गए उसका कारण नरम पंथियों की कमजोर मानसिकता थी। भगतसिंह की फांसी औऱ चंद्रशेखर आज़ाद की हत्या को देश के नरम विचारवादियो ने दफन कर दिया। इन्ही नरमपंथियों ने आज़ादी की सौदेबाज़ी में द्वितीय विश्वयुद्ध में हज़ारो भारतीय सैनिकों को मौत के घाट उतरवा दिया। अहिंसा का ये हिंसात्मक रूप हमेशा ही ढीलेढाले विचारवादियो को कटघरे में खड़ा करते है। देश आजाद हुआ तो देश के नाम पर मरने वालों के बजाय चोरी डकैती जुर्म के लोग स्वतंत्रता संग्राम सैनानी बन गए और भगतसिंह औऱ चंद्रशेखर आज़ाद आतंकवादी करार दिए गए। देश मे अनेक दलों की सत्ता आयी लेकिन ये लोग स्वतंत्रता संग्राम सैनानी नही हुए। खोज खोज कर भारतरत्न वोट की राजनीति के नाम भेंट चढ़ गए लेकिन इनकी सुध लेने वाले लोग जिनमे वर्तमान प्रधानमंत्री भी शामिल है साहस नही कर पाए कि देश के दो महान सपूतों को वो इज्जत दिया जाए जिसके लिए वे हक़दार है।
आज देश के सबसे निर्भीक,विचारशील, संघटनात्मक शक्ति से ओत प्रोत महान व्यक्तित्व पंडित चंद्रशेखर आज़ाद का जन्मदिन है। इस शख्स को देश का शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो इन्हें नही जानता होगा। आज़ाद चाहते तो संस्कृत के महान वेत्ता बन सकते थे लेकिन महज 15 साल में देश की आज़ादी के लिए कोड़े खाये आज़ाद बने आज़ाद कहलाये। वे जानते थे कि अंग्रेज लातों के भूत है बातो से नही मानेंगे इस कारण उन्होंने लोहा लोहे को काटता है का सिद्धांत अपनाया। लाला लाजपतराय की हत्या का बदला खून के बदले खून के रूप में लिया। उनकी शक्ति को अंग्रेज कभी भी आंक नही सके। बड़े बड़े अंग्रेजो की आज़ाद का नाम सुनते ही पेंट गीली हो जाती थी।
इस देश मे वीरों को दुश्मन मार नही पाते थे लेकिन जयचंदो, मीरजाफरो, सिंधियाओ, औऱ आज़ाद का पता देने वाले वीरभद्र के कारण दुश्मनों को फायदा मिला ।आज़ाद भी बड़े संदेहास्पद तरीके से मुखबिरी के शिकार हुए।तत्समय राजनीति के केंद्र रहे ईलाहाबाद (नाम से ही जाहिर है) में आज़ाद को अल्फ़्रेड पार्क में घेर लिया गया। वे जीते जी आज़ाद रहे तो आखिर में कैसे गुलाम होते। आज़ाद, जन्म से आज़ाद थे, आज़ाद रहे और आज़ाद मरे।
मिटा सकता कोई उनको जमाने मे दम नही
वो जमाने से थे जमाना उनसे नही
आज देश के 140 करोड़ लोग इस जाबांज़ को मन से श्रद्धा सुमन अर्पित करता है।
मुझे दिल्ली शांति स्थल से ज्यादा अल्फ़्रेड पार्क में अपनत्व महसूस होता है।
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