अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेषांक : स्त्री पुरुषों से किसी मामले में कम नहीं
Writer: हुलेश्वर जोशी
हर साल 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाते हैं इसके माध्यम से हमारा लक्ष्य रहता है महिलाओं को सशक्त और सुदृढ़ बनाना। महिलाओं को उनके पूरे शक्ति और मानव अधिकारों के भरपूर इस्तेमाल करने की आजादी देना, ताकि वे जो हैं हो सकें। जिसका वे हकदार हैं वे भी पुरुषों की भांति सब कुछ सरलता से हासिल कर सकें। इन लक्ष्यों और वकलतों को पढ़कर, जानकर और सुनकर हमारे जेहन में एक प्रश्न उठता है कि "हमें महिलाओं को सशक्त और सुदृढ़ करने की वकालत करने की जरूरत क्यों पड़ रही है?" जबकि भारतीय संविधान ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय मानव अधिकार कानूनों के माध्यम से भी महिला और पुरुषों को बराबर का अधिकार और अवसर उपलब्ध कराने के लिए सरकार को जिम्मेदारी दी गई है। ऐसा इसलिए क्योंकि विगत हजारों साल से हमने जिस पुरूष प्रधान समाज की मानसिकता से ग्रसित होकर महिलाओं के लिए अमानवीय रवैया अपना लिया है पुरुष को महिलाओं से श्रेष्ठ, महान और अधिक शक्तिशाली होने का कपोल कल्पित आइकॉन बना रखा है। पल-प्रतिपल महिलाओं को कमजोर प्रमाणित करने के लिए झूठे धार्मिक सिद्धांत, आधारहीन पारंपरिक नियम और पुरुषों के कुटिल बौद्धिक क्षमताओं के प्रयोग से श्रृंगार के नाम पर, सुंदरता, कोमलता और मर्यादा के नाम पर छला जाता रहा है। ये छलावा आज इतने हजारों साल बाद भी निरंतर जारी है.. कुछ कथित काल्पनिक धार्मिक सामाजिक सिद्धांतों की बात करें तो इसके आधार पर महिलाओं को हमेशा सुरक्षा की आवश्यकता होती है, उन्हें सृष्टि के संचालन के लिए संतानोत्पत्ति तथा कुल परिवार और पति के सेवा के लिए श्रमिक से अधिक कोई भी अधिकार देने के पक्ष में नहीं है, तरह तरह के व्रत उपवास के माध्यम से उन्हें जहां मानसिक रूप से शांत और संतुलित रहने की सीख दी जाती रही है वहीं उन्हें तरह तरह के आइडियाज के माध्यम से कोमल और सुंदर रहने के लिए प्रेरित किया जाता है। महिलाओं के लिए केवल कर्तव्य निर्धारित कर बांध रखा गया है जबकि पुरुषों को अधिकार सम्पन्न बनाया गया है। पुरुषों को आज भी केवल महिलाओं पर राज करने के लिए शक्तिशाली बने रहने की शिक्षा दी जा रही है, तरह तरह के कठोर शब्दभेदी बाण के माध्यम से पुरूषार्थ की मानसिकता बनाकर पुरुषों को कठोर और क्रूर बनने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।
सबसे खास बात ये है कि संविधान और मानव अधिकार समानता और न्याय के आधारशिला पर खड़ी है इसलिए संविधान और मानव अधिकार नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के अनुसार स्त्री और पुरुषों के लिए बराबर न्याय, अवसर और समानता पर जोर देती है जो कुछ विशेष प्रकार के मानसिकता से ग्रसित लोगों को बर्दाश्त नहीं हो रहा है, हमेशा की तरह ही वे स्त्रियों पर अधिकार करने के लिए हिंसा और घरेलू हिंसा को अपना पुरूषार्थ समझते हैं। इसलिए हमारे लिए आवश्यक है कि हम सरकार के साथ मिलकर महिलाओं को सशक्त सुदृढ़ और जागरूक करने में अपना योगदान दें, ताकि स्त्री पुरूष के मध्य शक्ति और संपत्ति का बराबर बटवारा हो सके, माहिलाएँ प्रताड़ना से मुक्त होकर अपने भरपूर योग्यता के साथ समाज और देश की उन्नति में भागीदार बन सकें।
महिलाओं के सहभागिता के बिना पुरुषों के सफलता, सुख और शान्ति की कल्पना मानसिक दिवालिया से बढ़कर कुछ नहीं है; यदि ऐसा कोई दावा करता हो तो वह स्त्री के योगदान की उपेक्षा करके उनके साथ अन्याय करता है। स्त्री किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं, ये प्रमाणित करने के लिए महिलाओं को समान अवसर देने के साथ साथ उन्हें मानव अधिकारों के उपयोग से जागरूक करने के लिए सुदृढ़ करने की जरूरत है। यदि आप स्त्री को जन्म, लालनपालन से लेकर प्रेम करने, भोजन बनाने, गृहस्थी सम्हालने तक भी संकुचित मानते हैं तब भी समीक्षा करके देखिए उसके बिना आपके पद, प्रतिष्ठा, सफलता, सुख, शांति और जीवन की कल्पना जैसे छोटी मोटी घटना ही नहीं हो पाएगी क्योंकि स्त्री के बिना तो आपका जन्म भी संभव नही है। स्त्री को पूरा पूरा अधिकार है कि वह संतानोत्पत्ति करेगी कि नहीं, उनसे उनका यह अधिकार कोई छीन नहीं सकता। हम सब प्रकार से स्त्री की उपेक्षा कर भी लें तो जन्म देने के लिए हम स्त्री के लिए इतना ऋणी हैं जिससे उऋण होना लगभग मुश्किल है। स्त्री हमें हर रूप में सहायता देकर सृष्टि के संचालन में बराबर जिम्मेदारी का निर्वहन कर रही है इसलिए दुनियाभर के सारे संसाधन में बराबर का हक है, जिसे देने के लिए हमें मिलकर काम करना चाहिए..... यही न्याय है, यही धर्म है।
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