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चले गए बेचैन
लेखक: संजय दुबे
चले गए बेचैन
खेल चलता रहे औऱ बात भी होती रहे
तुम सवालों को रखो मैं सामने उत्तर रखूं
इन पंक्तियों मैं आप अगर कुवंर बेचैन साहब को देख सके तो आप मानेंगे की ये बैचैन व्यक्ति नाम भर का बेचैन था लेकिन वे चैन की बंशी बजाते रहे और कविता के अविरल धारा में बहते रहे हमको बहाते रहे। कुवंर बेचैन को जो लोग सुनते पढ़ते है उनके लिए कुँवर साहब बड़े सादगी से बड़े सरल शब्दों में बयां करते/होते थे। कविता कहने लिखने वालों में ये मुगालता होता है कि वे कठिन भाव को अत्यंत कठिन शब्दो और विन्यास के बहाने गूढ़ बनाकर प्रबुद्धता को प्रकट कर विशिष्ट होना चाहते है लेकिन इसका खामियाजा भुगतना ऐसे पड़ता है कि आप, आम लोगो की पहुँच से खारिज हो जाते है। कुँवर बेचैन स्वीकार्य थे क्योकि उनके शब्द आम थे जिन्हें हम ज्यादातर सुनते है जैसे
हो के मायूस न यूँ शाम से ढलते रहिये
जिंदगी भोर है सूरज से निकलते रहिये
कितना सरल लेखन है इन दो पंक्तियों में! इसी कविता की आगे की पंक्तियां
एक ही ठौर पे ठहरेंगे तो थक जाएंगे
धीरे धीरे ही सही राह पे चलते रहिये
आपको जक उठना है तो आंसू की तरह
दिल से आंखों की तरफ हंस के उछलते रहिये
गौर फरमाएं
शाम को जो गिरता है तो सुबह संभल जाता है
आप सूरज की गिरकर सम्हलते रहिये
प्यार से अच्छा नहीं कोई भी साँचा ए दोस्त
मोम बनकर इसमे पिघलते रहिये
कुँवर साहब की कविता की बगिया में एक ए से एक नायाब गुलदस्ते थे उनमें से कुछ फूल ऐसे है जिनको आप भी चुन सकते है ,पढ़ सकते है
*आज तेरा नाम जैसे ही लिया वो रुक गयी
आज सच पूछो तो अपनी हिचकियाँ अच्छी लगी
जब से गिनने लगा हूँ इन पर तेरे आने के दिन
बस तभी से मुझको अपनी उंगलियां अच्छी लगी
बंद आंखों से किसी के ध्यान में डूबी हुई
धीरे धीरे जो खुली वो खिड़कियां अच्छी लगी
* कभी चलता हुआ चंदा बताता कभी तारा बताता है
जमाना ठीक है मुझको बंजारा बताता है
* हज़ारो खुशबुएँ दुनियां में है पर उससे छोटी है
किसी भूखे को जो सिकती हुई रोटी से आती है
* सबकी बात न मानकर खुद को भी पहचान कर
दुनियां से लड़ना है तो अपनी ओर निशाना कर
*अब हम लफ़्ज़ों से बाहर है हमे मत ढूंढ़िए साहब
हमारी बातें होती है इशारों इशारों में
कल जब बेचैन साहब विदा हुए तो ये पंक्तियां उनकी थी उन पर ही जुड़ गई
कौन जाने कब बुलावा आये और जाना पड़े
सोचता हूँ हर तैयार अब बिस्तर रखूं
मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यो डर रखूं
जिंदगी आ तेरे कदमो पर अपना सर रखूं
निहायत सरल शब्दों में कुँवर बहते रहे। जिंदगी नदी है तो मृत्यु सागर है कल सागर में बेचैन, सुकून की जिंदगी पा गए।
सचमुच, धीरे धीरे बंद होती खिडकियां अच्छी लगती है
आभार कुंवर साहब, नमन
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