जोखिम लेने वाले सरकारी कर्मचारी भी 1 करोड़ के हक़दार है

लेखक: संजय दुबे

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राज्यो में स्थापित उच्च न्यायालयों के निर्णयों की नज़ीर देश भर में दूसरे न्यायालयो और राज्य की सरकारों के लिए नीति निदेशक होते है क्योंकि किसी भी व्यक्ति के  संबंध में निर्णय होता है तो वह समान रूप से सभी ऐसे पीड़ित व्यक्तियों के लिए भी न्यायकारक हो जाता है।   प्रयागराज उच्च न्यायालय ने कल एक जनहित याचिका में उत्तरप्रदेश की सरकार को पंचायत निर्वाचन कार्य मे लगे शासकीय कर्मियों की मृत्यु पर दिए जाने वाले  आर्थिक क्षतिपूर्ति को अत्यंत अल्प मानते हुए 1 करोड़ रुपये देने के सम्बंध निर्णय लेकर आने के निर्देश दिए है।  सारे देश मे व्यवस्थापिका, अपने निर्णयों को जनता तक पहुँचाने और लाभ देने के साथ स्वयं की स्तुति के लिए भी जबरदस्त तरीके से ललायित रहती है। कोरोना के दूसरे लहर में भी देश के प्रधानमंत्री से लेकर सभी पार्टियों के नेतृत्वकर्ता  इस लोभ से बच न सके। आज परिणाम सामने है। देश के नेतृत्वकर्ता  वर्चुअल हो चले है। जिस भीड़ को वे अपने अनुशारणकर्ता मानते है आज वो भीड़ को कोई सम्हाल रहा है तो केवल कार्यपालिका के कुछ  गिने चुने विभाग ही है। स्वास्थ्य,पुलिस, नगरीय प्रशासन,राजस्व,खाद्य नागरिक आपूर्ति विभाग के अलावा कोई अन्य विभाग के लोग सड़क पर नही है। कठिन दौर में चुनाव कराना  कितना ख़ौफ़नाक था कि मद्रास उच्च न्यायालय ने निर्वाचन आयोग को हत्यारा की उपमा दे दी। अब उत्तरप्रदेश में पंचायत चुनाव केवल  हेकड़ी का ही उदाहरण बनता है कि अपनी राजनैतिक  मनमर्जी के सामने जनता का स्वास्थ्य मायने नही रखता।खैर, सरकारी कर्मचारी तो अपने परिवार को चलाने के लिए सरकार के निर्णयों को मानता ही है क्योंकि उसका घर सरकार के द्वारा दिये गए वेतन से ही चलता है। उत्तरप्रदेश में पंचायत चुनाव कागज के मतपत्रों से हुए है। सोचिए, कहाँ रही होगी सोशल डिस्टेंसिग ? एक मतपत्र को कितने लोगों ने पकड़ा होगा?  मतपत्र के वितरण से लेकर गिनती तक? चुनाव आयोग को ऐसे में आप तोता नही कहेंगे या हत्यारा नही कहेंगे तो क्या कहेंगे? अब इस कार्य मे लगे सरकारी संक्रमित हो रहे है तो उनके इलाज की व्यवस्था नही है, ऑक्सीजन सिलेंडर नहीं है, बेड नही है, रेमडिसिवर इंजेक्शन नही है, है भी तो इतनी महंगी कि  प्रथम श्रेणी के शासकीय अधिकारी भी हक्क खा गए है बाकी श्रेणी के कर्मचारियों को तो भगवान ही बचा ले या बुला ले।कोई फर्क व्यवस्थापिका को नही पड़ता है। मरने वाला तो केवल एक आंकड़ा है,पर उसका परिवार या उसके वेतन पर जीने वाले उसके माता, पिता, भाई, बहन, पत्नी, बच्चे और दीगर आश्रित लोग आंकड़े नही है वे रोटी का जुगाड़ करने वाले शासकीय कर्मचारियों की आकस्मिक  मृत्यु के बाद मोहताज होने वाले जीवित लोग है जिनको भूख लगेगी, कपड़े की जरूरत होगी, छत  चाहिए होगा,दवाई की जरूरत होगी, शादी ब्याह और घर मे मृत्यु भी होगी तो क्या होगा? ये आंकड़े नही है प्रधानमंत्री जी, मुख्यमंत्री जी, इनकी भी परवाह कीजिये।
मैं प्रयागराज उच्च न्यायालय के विद्धवान न्यायधीश सिद्धार्थ वर्मा जी और अजित कुमार जी का मन से अभिनंदन करता हूं जिन्होंने सरकारी कर्मचारियों के मनमाने दुरुपयोग के मर्म को समझा और सरकार को कहा कि अगर सरकारी कर्मचारी को संकट में डाल रहे हो तो उसके परिवार को  आर्थिक रूप से क्षतिपूर्ति देने की जिम्मेदारी भी लो। 1 करोड़ रुपये देने की तैयारी से  जवाबदावा लेकर आओ।
 


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