अभिनय के सौदागर

लेखक - संजय दुबे

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हमारे देश मे आज़ादी के पहले से लेकर जब राजा हरिश्चन्द्र जैसी मूक फिल्म ने जन्म लिया था उसके बाद से पहली बोलती फिल्म आलमआरा से लेकर आज तक विशुद्ध मनोरंजन के लिए पहली पसंद फिल्में ही रही है। इन्ही फिल्मो में बने नायकों के अभिनय में पुरुषों ने खुद को रखकर जीवन के सुख दुख को अनुभूत किया है।नायकों के दमदार अभिनय ने थियेटर में ही दर्शको को नौ रस में डुबाने का सामर्थ्य भी रखा।ऐसे ही एक नायक, तत्समय उनको महानायक ही मानना चाहिए क्योंकि वे अभिनय के हर रंग में रंगे। दुख का दामन थामा तो वे एक दौर के बाद खुद अवसाद में डूब गए थे। ऐसे दौर से निकलने के लिए वे हास्य के रंग में भी दिखे तो दर्शको ने उनके अभिनय का लोहा माना। वे फिल्मो की दुनियां में ज्वार भाटा के माध्यम से आये थे इसके बाद उनके अभिनय में निखार हर फिल्म के साथ आते रहा। देवदास, यहूदी,नया दौर, मधुमति, पैगाम, मुग़ल ए आजम,गंगा जमुना, लीडर, दिल लिया दर्द दिया, राम औऱ श्याम, संघर्ष, दास्तान, गोपी उनके पहले दौर की वे फिल्में थी जिसमे केवल औऱ केवल दिलीप कुमार थे। अभिनय में वे शायद जान डालने के लिए ही जन्मे थे।उनको देखकर कभी ये नही लगा कि वे अभिनय कर रहे है बल्कि ऐसा लगता कि जिस किरदार में उन्हें रखा गया है उसे वे आत्मसात कर चुके रहते थे। उनके आगमन के दौर में ट्रेजडी का मसाला अनिवार्य था सो वे इतना रमे कि ट्रेजडी किंग कहलाने लगे। उनके अभिनय काल मे देश में डाकू समस्या बड़ी समस्या रही सो दिलीप साहब भी गंगा जमुना में ऐसे डाकू बने कि आनेवाले कलाकारों को बहुत मेहनत मशक्कत करनी पड़ गयी। दिलीप साहब को लोग ज्यादा जानते है तो मुगल ए आजम के लिए। सलीम की भूमिका के लिए शायद तब से लेकर अब तक कोई भी कलाकार जोखिम मोल नही ले पाया है। यदि आपमे से जिस किसी ने इस फिल्म को देखा होगा तो प्यार किया तो डरना क्या गीत में दिलीप साहब के मौन अभिनय की दमदारी को भी समझ सकते है।

  अभिनेता से जब दिलीप साहब चरित्र अभिनेता बने तो उनकी दूसरी पारी भी श्रेष्ठतम ही रही। क्रांति, विधाता,शक्ति(अमिताभ का पाला पड़ा था)मशाल, के बाद कर्मा में जब उन्होंने डॉ डेंग को थप्पड़ मारा था तब से थप्पड की गूंज आज तक याद रखी गयी है।सौदागर में वे अक्खड़ राजकुमार के साथ आये थे तो सब कुछ जानते हुए भी राजकुमार को ही राजकुमार रहने दिया । ये उनके अभिनय के प्रति समर्पण था और राजकुमार जैसे कलाकार का सम्मान भी। सच मे वे अभिनय के सौदागर ही थे।

 उम्र के अंतिम दौर में वे जब भी हॉस्पिटल जाते तो लगता था कि वे अब घर नही जा सकेंगे लेकिन उनकी जिजीविषा ही थी जो उन्हें अदब से जिंदा घर पहुँचा देती थी लेकिन आज वे नया दौर नही देख सके,संघर्ष किया लेकिन पैगाम नही दे सके।अभिनय आजम की फिल्म अंततः द एंड हो ही गयी। हमारे देश मे सम्प्रदाय के चश्मे से लोग देखने की चाह रखने लगे है लेकिन इनसे विलग दिलीप कुमार हमेशा ही दिलीप कुमार ही रहे। आगे भी वे दिलीप कुमार ही रहेंगे।

सालो तक बहुत कम पैसे शायद एक आना से लेकर एक रुपये साठ पैसे की टिकट में दिलीप साहब ने इकलौते मनोरंजन के दौर में देश को रुलाते हंसाते रहे उनके हम सब शुक्रगुजार है। सौदागर, सौदा कर ही गया है दिल लेकर,दिल देकर, सही में दिल लिया दर्द दिया

 श्रद्धांजलि दिलीप साहब


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